Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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अनेकान्तवाद : सिद्धान्त और व्यवहार
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के कारण सामाजिक कल्याण की आर्थिक दृष्टि असफल हो गयी और उपभोक्तावाद इतना प्रबल हो गया कि उसने सामाजिक आर्थिक कल्याण की पूर्णत: उपेक्षा कर दी। परिणाम स्वरूप अमीर और गरीब के बीच खाईं अधिक गहरी होती गयी।
इसी प्रकार अर्थशास्त्र के क्षेत्र में आर्थिक प्रगति का आधार व्यक्ति की इच्छाओं, आकांक्षाओं और आवश्यकताओं को बढ़ाना मान लिया गया। किन्तु इसका परिणाम यह हआ कि अर्थशास्त्र के क्षेत्र में स्वार्थपरता और शोषण की दृष्टि ही प्रमुख हो गयी। आवश्यकताओं की सृष्टि और इच्छाओं की पूर्ति को ही आर्थिक प्रगति का प्रेरक तत्त्व मानकर हमने आर्थिक साधन और सुविधाओं में वृद्धि की, किन्तु उसके परिणामस्वरूप आज मानव जाति उपभोक्तावादी संस्कृति से ग्रसित हो गयी है और इच्छाओं और आकांक्षाओं की दृष्टि के साथ चाहे भौतिक सुख-सुविधाओं के साधन बढ़े भी हों किन्तु उसने मनुष्य की अन्तरात्मा को विपन्न बना दिया। आकांक्षाओं की पूर्ति की दौड़ में मानव अपनी आन्तरिक शान्ति खो बैठा। फलत: आज हमारा आर्थिक क्षेत्र विफल होता दिखाई दे रहा है। वस्तुत: इस सब के पीछे आर्थिक प्रगति को ही एकमात्र लक्ष्य बना लेने की एकान्तिक जीवन दृष्टि है।
कोई भी तंत्र चाहे वह अर्थतंत्र हो, राजतंत्र या धर्मतंत्र, बिना अनेकान्त दृष्टि को स्वीकार किये सफल नहीं हो सकता, क्योंकि इन सबका मूल केन्द्र तो मनुष्य ही है। जब तक वे मानव व्यक्तित्व की बहुआयामिता और उसमें निहित सामान्यताओं को नहीं स्वीकार करेंगे, तब तक इन क्षेत्रों में हमारी सफलताएं भी अन्तत: विफलताओं में ही बदलती रहेंगी। वस्तुत: अनेकान्त दृष्टि ही एक ऐसी दृष्टि है जो मानव के समग्र कल्याण की दिशा में हमे अग्रसर कर सकती है। समग्रता की दिशा में अंगों की उपेक्षा नहीं, अपितु उनका पारस्परिक सामंजस्य ही महत्त्वपूर्ण होता है और अनेकान्तवाद का यह सिद्धान्त इसी व्यावहारिक जीवन दृष्टि को समुपस्थित करता है। अनेकान्त को जीने की आवश्यकताः
मझे यह जानकर प्रसन्नता हो रही है कि - अनेकान्त के व्यावहारिक पक्ष पर श्री नवीन भाई शाह की हार्दिक इच्छा, प्रेरणा और अर्थ सहयोग से मेरे निर्देशन में लगभग छ: वर्ष पूर्व अहमदाबाद में जो संगोष्ठी हुई थी, उसमें प्रस्तुत कुछ महत्त्वपूर्ण निन्ध अब प्रकाशित हो रहे हैं। अनेकांतवाद के सैद्धान्तिक पक्ष पर तो प्राचीन काल से लेकर अब तक बहुत विचार-विमर्श या आलोचन-प्रत्यालोचन हुआ किन्तु उसका व्यावहारिक पक्ष उपेक्षित ही रहा। यह श्री नवीन भाई की उत्कट प्रेरणा का ही परिणाम था कि अनेकान्त के इस उपेक्षित पक्ष पर न केवल संगोष्ठी और निबन्ध-प्रतियोगिता का आयोजन हुआ, अपितु इस हेतु प्राप्त निबन्धों या निबन्धों के चयनित अंश का प्रकाशन भी हो रहा है। अनेकांतवाद मात्र सैद्धान्तिक चर्चा का विषय नहीं है, वह प्रयोग में लाने का विषय है,
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