Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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अनेकान्तवाद और नेतृत्व
समणी कुसुमप्रज्ञा
अविरोध में विरोध देखने वाला एक चक्षु होता है और विरोध में अविरोध देखने वाला अनंत चक्षु। आचार्य श्री महाप्रज्ञ जी की ये पंक्तियाँ एक बहुत बड़े दार्शनिक और व्यावहारिक सत्य का उद्घाटन करती हैं। भगवान् महावीर अणंत चक्षु थे इसलिए वे अनेकान्त के उद्गाता और प्रयोक्ता हुए। इस संदर्भ में भगवती सूत्र के कुछ प्रसंग उद्धरणीय हैं। गौतम ने पूछा - भंते! आप अस्ति हैं या नास्ति?
भगवान ने कहा - मैं अस्ति भी हूँ और नास्ति भी। भंते! सोना अच्छा है या जागना?
गौतम! कुछ जीवों के लिए सोना अच्छा है और कुछ के लिए जागना। इसलिए सोना भी अच्छा है और जागना भी । यह शैली 'विभज्जवायं च वियागरेज्जा' की उपजीवी है।
भगवान् महावीर ने अनेकान्त दृष्टि का प्रयोग केवल तात्त्विक विवेचना में ही नहीं किया अपित जीवन के हर क्षेत्र में उस दृष्टि को उचित स्थान दिया। किंतु आज खेद इस बात का है कि इस वैज्ञानिक दृष्टि को हम जीवन की व्याख्या में जोड़ना भूल गए हैं। परवर्ती आचार्यों ने भी सैद्धान्तिक स्तर पर तो अनेकान्त को पुष्ट किया परन्तु उसमें नाना आयाम जोड़ने पर अनेकान्त के सूत्र जीवनगत और व्यवस्थागत भी किए जा सकते हैं इस दिशा में प्राज्ञ आचार्य बहुत कुछ नहीं कर पाए। आज यह स्वर उभर रहा है कि अनेकान्त का प्रयोग दैनंदिन जीवन में कैसे संभव हो सकता है।
व्यक्ति निरपेक्ष समाज और समाज निरपेक्ष व्यक्ति की कल्पना नहीं की जा सकती। दोनों का सहअस्तित्व ही कामयाबी हो सकता है। जहां भी समाज होगा वहां नेतृत्व की आवश्यकता होगी। नेतृत्व विहीन समाज विश्रृंखलित हो जाता है और उसके विकास की सारी संभावनाएं धूमिल हो जाती हैं।
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