Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
अवयव से अवयवी मिले हों हो सकता यह सत्य नहीं अनेकान्त के सिवा सामने
लाता कोई तथ्य नहीं ।। जो पूर्ण है वही अनेकान्त है। एक ही वस्तु में अस्ति, नास्ति, नित्य-अनित्य, एक-अनेक आदि विरोधी कहे जाने वाले धर्म मिलते हैं किन्तु एक शब्द एक समय में वस्तु के एक ही धर्म का आंशिक व्याख्यान कर सकता है। एक शब्द में इतना सामर्थ्य नहीं कि वह वस्तु के सभी धर्मों का एक साथ निरूपण कर दे। इसलिए सत्य को प्रकाशित करने के एक मात्र साधन शब्द की इस अपरिहार्य कमजोरी को अनुभव करके हमारे तीर्थंकरों ने स्याद्वाद सिद्धान्त का आविष्कार किया। ‘स्यात्' शब्द का अभिप्राय कथंचित् या "किसी अपेक्षा से" है जैसा कि आप्तमीमांसा में आचार्य समन्तभद्र ने कहा है - स्याद्वादः सर्वथैकान्तत्यागात् किंवृत्तचिद्विधिः। भगवान महावीर के उपदेश का प्रत्येक वाक्य स्यात्, कथंचित् या किसी अपेक्षा से होता था क्योंकि उसके बिना पूर्ण सत्य का प्रकाशन नहीं हो सकता।
___ अनेकांतमयी वस्तु का कथन करने की पद्धति स्याद्ववाद है। अनेक धर्मवाली वस्तु के सभी धर्मों का किसी भी एक शब्द या वाक्य के द्वारा युगपत् कथन करना अशक्य है इसलिए प्रयोजन वश एक धर्म को मुख्य एवं शेष धर्म को गौण करके वस्तु का कथन करना स्याद्ववाद है और इसी प्रयोजन से अनेकांतवादी अपने प्रत्येक शब्द के साथ 'स्यात्' अथवा 'कथंचित्' शब्द का प्रयोग करता है। कथंचित् शब्द के प्रयोग से यह स्पष्ट हो जाता है कि जो कथन किया जा रहा है वह अंश के संबंध में है पूर्ण वस्तु के संबंध में नहीं। वास्तव में स्यात् अस्ति, स्यात् नास्ति, स्यात् अस्तिनास्ति, स्यात् अवक्तव्य आदि ये प्रमाण सप्तभंगी हैं। स्वद्रव्य, स्वक्षेत्र, स्वकाल और स्वभाव की अपेक्षा द्रव्य अस्ति रूप है। वही पर द्रव्य, पर क्षेत्र, पर-काल और पर भाव की अपेक्षा नास्ति रूप है। स्वद्रव्यादि चतुष्टय और परद्रव्यादि चतुष्टय दोनों की अपेक्षा लगाने पर एक ही वस्तु स्यात् अस्ति और स्यात् नास्ति स्वरूप होती है। दोनों धर्मों को एक साथ कहने की अपेक्षा से वस्तु अवक्तव्य है। इसी प्रकार अपने-अपने नय के साथ अर्थ की योजना करने पर वस्तु अस्ति अवक्तव्य, नास्ति अवक्तव्य, और अस्ति-नास्ति अवक्तव्य है। “जीवन है" इस वचन भंगी में जीवन के अस्तित्व का प्रतिपादन है। किन्तु जीवन केवल अस्तित्व ही नहीं है वह और भी बहुत कुछ है। जीवन नहीं है इसमें जीवन के नास्तित्व का प्रतिपादन है। किन्तु जीवन केवल नास्तित्व ही नहीं है, वह
और भी बहुत कुछ है। इसलिए जीवन है और जीवन नहीं है - यह कहना सत्य नहीं है किन्तु सत्य यह है कि स्यात् जीवन है स्यात् जीवन नहीं है।
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