Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 514
________________ समाज में अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद की महत्ता समाज में तीर्थों को लेकर, मान्यताओं को लेकर, संस्थागत गतिविधियों को लेकर जो झगड़े एवं मनमुटाव हैं उन सबको अनेकान्त सिद्धान्त के सहारे सुलझाया जा सकता है । अनेकान्त दर्शन की नींव में स्यात् और कथंचित् ऐसे नींव के पत्थर हैं जिसके प्रयोग से बहुत सी समस्याओं को सुलझाया जा सकता है। जैन दर्शन के अनेक आचार्यों ने अनेकान्त दर्शन का प्रमुख रूप से विवेचन किया है। इन आचार्यों में आचार्य कुन्दकुन्द, समन्तभद्र, अकलंकदेव, हरिभद्र सूरि और आचार्य हेमचन्द्र का नाम उल्लेखनीय है । इन आचार्यों द्वारा अनेकान्त दर्शन के प्रबल समर्थन से समस्त देश में इस दर्शन के प्रति जन-जन की श्रद्धा, बढ़ी, और धार्मिक सहिष्णुता को जीवन में उतार कर अनेकान्तवाद ने भारत के सांस्कृतिक अभ्युदय में अपना पूर्ण योगदान दिया। आज तो सारा राष्ट्र महावीर के इस सिद्धान्त का चिर ऋणी है। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर के शब्दों में 'अनेकान्त का अनुसंधान भारत की अहिंसा साधना का चरमोत्कर्ष है और सारा संसार इसे जितना ही शीघ्र अपनायेगा विश्व में शांति भी उतनी ही शीघ्र स्थापित होगी।' इसी तरह डॉ० हरिसत्य भट्टाचार्य के शब्दों में जैनों का अनेकान्तवाद हमें व्यावहारिक जीवन में समभाव की दिशा देता है। वह कहता है कि अपने पक्ष के साथ विपक्ष को भी ध्यान में रखकर सही निष्पक्ष निर्णय करो। इसीलिए अनेकान्त अहिंसा के सुख के लिए परमावश्यक है। अनेकान्त पर आधारित अहिंसा द्वारा ही विश्व में शांति की स्थापना की जा सकती है। आज भारत विश्व का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है और इस लोकतंत्र के महल की नींव का पत्थर अनेकान्त को बनाना चाहिए जिससे झंझावातों में भी वह सुरक्षित रह सके। धार्मिक सद्भाव एवं वैचारिक सहिष्णुता के लिए अनेकान्त की आत्मानुभूति परमावश्यक है । इस प्रकार जितना अधिक अनेकान्त दर्शन हमारे जीवन में उतरेगा उतना ही देश एवं हमारा जीवन समृद्धि एवं विकास पथ पर अग्रसर हो सकेगा। सन्दर्भ १. कार्तिकेयानुप्रेक्षा - २२७ २. अर्हत् सूत्र - पृष्ठ संख्या ९९० ३. स्याद्वादमंजरी ३०/३३६/२९ ४. विश्वज्योति महावीर - गणेश मुनि शास्त्री पृ० सं० १४१-४२ Jain Education International For Private & Personal Use Only 449 www.jainelibrary.org

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