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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
आज पाश्चात्य देशों में एक विचार पनप रहा है कि एक नेतृत्व की आवश्यकता नहीं है। सब स्वतंत्र हैं, कोई किसी के अधीन क्यों रहें? महावीर ने इस बात का समाधान आज के हजारों वर्ष पूर्व दे दिया। उन्होंने कहा निश्चयनय से आत्मानुशासन ही अनुशासन का सर्वोत्कृष्ट रूप है अत: वे कहते हैं -
१. पुरिसा! अत्ताणमेव अभिणिगिज्झ
२. तुमंसि णाम सच्चेव जं परिघेत्तव्वं ति मनांसि
३. अप्पा चेव दमेयव्वो
अर्थात् तुम जिस पर शासन करके हुकूमत करना चाहते हो, वह तुम ही हो, यह निश्चयनय की व्याख्या है, इसकी भूमिका हरेक को सहसा प्राप्त नहीं होती। यह व्यक्तिगत दृष्टिकोण है पर जहां सामाजिक जीवन जीना है वहां व्यवहार के स्तर पर परानुशासन के सूत्रों का विस्तार भी महावीर ने दिया -
१.
२.
आणानिसक गुरुणमुववायकारए इंगियागार संपणे से विणी ति वच्चई || मामगं धम्मं जं मे बुद्धाणुसासंति सीएण फरुसेण वा लामो त्ति
आणाए
मम
पेहाए ||
आत्मानुशासन और परानुशासन दोनों सापेक्ष सत्य हैं। आत्मानुशासन जगाने के लिए प्रथम सूत्र सही है पर जब तक आत्मनियंत्रण न जगे तब तक व्यवहार चलाने के लिए दूसरा भी सत्य है । अतः निश्चयनय से हर व्यक्ति अपना नेता है क्योंकि वह नैतिक संकल्प करने और उसको क्रियान्वित करने में स्वतंत्र है पर व्यवहार में उसे बाह्य अनुशासन सहना भी जरूरी है, इस दृष्टि से एक ही व्यक्ति अनुशास्ता भी है और अनुशासित भी। आचार्य श्री तुलसी ने इसी सत्य को इस घोष में मुखरित किया है - 'निज पर शासन फिर अनुशासन' इसी घोष की व्याख्या में वे कहते हैं- हुकूमत के तख्ते पर बैठा हुआ वह व्यक्ति दीन, हीन, अनाथ और परतंत्र है, जो अपने आप पर अनुशासन नहीं कर सकता । महावीर का यह सापेक्ष दृष्टिकोण जहां नेता के अभिमान को समाप्त करता है वहीं हर एक को अनुशासित रहने की प्रेरणा भी देता है ।
आचारांग सूत्र में महावीर ने दार्शनिक शैली में अनुशासन का एक नया रूप हमारे सामने रखा है - "कुसले पुण णो बद्धे णो मुक्के” अर्थात् कुशल व्यक्ति बाह्य अनुशासन से बद्ध नहीं होता पर आंतरिक अनुशासन से मुक्त नहीं होता । आचार्य श्री तुलसी इसी बात को साहित्यिक शैली में प्रस्तुत करते हैं - अनुशासन की संतह पर तैरने वाला बंधता है और उसकी तहों तक पंहुचने वाला मुक्त हो जाता है। अतः यह
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