Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
(क) दार्शनिक विचारों के समन्वय का आधार स्याद्वाद
भगवान महावीर और बद्ध के समय भारत में वैचारिक संघर्ष और दार्शनिक विवाद अपने चरम सीमा पर थे। जैन आगमों के अनुसार उस समय ३६३ और बौद्ध आगमों के अनुसार ६२ दार्शनिक मत प्रचलित थे। वैचारिक आग्रह और मतान्धता के इस युग में एक ऐसे दृष्टिकोण की आवश्यकता थी, जो लोगों को आग्रह एवं मतान्धता से ऊपर उठने के लिए दिशा निर्देश दे सके। भगवान बुद्ध ने इस आग्रह एवं मतांधता से ऊपर उठने के लिए विवाद पराङ्मुखता को अपनाया। सुत्तनिपात में वे कहते हैं कि मैं विवाद के दो फल बताता हूँ- (१) वह अपूर्ण व एकांगी होता है। (२) कलह एवं अशांति का कारण होता है। अत: मुमुक्षु को दार्शनिक वाद-विवाद में नहीं पड़ना चाहिए।
भगवान महावीर ने भी आग्रह को साधना-सम्यक् पथ नहीं समझा। उन्होंने भी कहा कि आग्रह, मतान्धता या एकांगी दृष्टि उचित नहीं है। जो व्यक्ति अपने मत की प्रशंसा और दूसरों की निंदा करने में ही पांडित्य दिखाते हैं वे संसार के चक्र में घूमते रहते हैं (सयं सयं पसंसंता गरहंता परं वयं, जेउ तत्थ विउस्सामि संसारेते विउस्सिया)'५६ इस प्रकार महावीर व बुद्ध दोनों ही उस युग की आग्रह वृत्ति एवं मतान्धता से जनमानस को मुक्त कराना चाहते थे फिर भी बुद्ध और महावीर की दृष्टि में थोड़ा अन्तर था। जहाँ बुद्ध इन विवादों से बचने की सलाह दे रहे थे वहीं महावीर इनके समन्वय की एक ऐसी विधायक दृष्टि प्रस्तुत कर रहे थे, जिसका परिणाम स्याद्वाद है।
___स्याद्वाद विविध दार्शनिक एकांतवादों में समन्वय करने का प्रयास करता है। उसकी दृष्टि में नित्यवाद, द्वैतवाद, अद्वैतवाद भेद-भाव, अभेदभाव आदि सभी वस्तु स्वरूप में आंशिक पक्षों को स्पष्ट करते हैं। इनमें से कोई भी असत्य नहीं है। यदि इनको कोई असत्य बताता है तो वह आंशिक सत्य को पूर्ण सत्य मान लेने का आग्रह ही है। स्याद्वाद अपेक्षाभेद से इन सभी के बीच समन्वय करने का प्रयास करता है और यह बताता है कि सत्य तभी असत्य बन जाता है जबकि हम आग्रही दृष्टि से देखते हैं। यदि हमारी दृष्टि अपने को आग्रह के ऊपर उठाकर देखे तो हमें सत्य का दर्शन हो सकता है। सत्य का सच्चा प्रकाश केवल अनाग्रही को ही मिल सकता है। महावीर की स्पष्ट घोषणा थी कि सत्य का संपूर्ण दर्शन आग्रह के घेरे में रहकर नहीं किया जा सकता । आग्रह बुद्धि या दृष्टि राग सत्य को असत्य बना देता है। सत्य का प्रगटन आग्रह में नहीं, अनाग्रह में होता है, विरोध में नहीं, समन्वय में होता है। सत्य का साधक अनाग्रही और वीतरागी होता है।''५७
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