Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
अनेकान्तवाद की उपयोगिता
१. वैचारिक संघर्ष का निराकरण या विवाद पराङ्मुखता ।
२. वैचारिक सहिष्णुता या वैचारिक अनाग्रह ।
३. वैचारिक समन्वय और एक उदार एवं व्यापक दृष्टि का निर्माण ।
इस प्रकार अनेकांतवाद जैन धर्म की विश्व के लिये महान देन है फिर भी सर्वसाधारण के हृदय में इस सिद्धांत के प्रति उपेक्षा भाव और यह धारणा है कि यह शास्त्रों का सिद्धांत है और जीवन में उसकी कोई उपयोगिता नहीं है आखिर ऐसा क्यों? जबकि इस संघर्षशील युग के लिये इस सिद्धांत को औषधि के रूप में उपयोग किया जा सकता है। इसका एक मात्र कारण यही है कि जब तक किसी सिद्धांत का व्यवहार में प्रयोग नहीं होता तब तक उसकी ग्राहयता स्वीकार नहीं की जा सकती। केवल विचारों और ग्रंथों में ही रह जाने वाले सिद्धांतों से विश्व को कोई लाभ नहीं हो सकता। मानव जीवन को सफल और शांतिमय बनाने के लिये अपने सभी कार्यों में उठते-बैठते, खाते-पीते, घर में, घर से बाहर, दुकान पर, दफ्तर में, कचहरी में, बाजार में, हर स्थान और अवसर पर अनेकांत दृष्टि विवेक को अपनाने की आवश्यकता है । अंधविश्वास से देखा-देखी बिना समझे कार्य करना, रुचि या परंपरा का गुलाम बनना है, वह सद् दृष्टि नहीं है, इसे मिथ्या दृष्टि या अविवेक ही कहा जा सकता है । अतः व्यक्ति की दैनिक क्रियाओं में जबतक अनेकांत दृष्टि का व्यवहार नहीं होगा तबतक उसकी वास्तविक उपयोगिता सिद्ध नहीं होगी ।
इस प्रकार संक्षेप में अनेकांतवाद ही एक ऐसा सिद्धांत है जो वस्तुओं के विषय में होने वाले मताग्रहों एवं विरोधों का परिहार कर उसकी यथार्थता और पूर्णता का प्रकाशन करता है। इससे वस्तु के किसी भी पक्ष की हानि नहीं होती, अर्थात् यह वस्तु के सम्यक् स्वरूप का प्रतिपादन करता है। संक्षेप में यही अनेकांतवाद का सार है । यही जैन दर्शन की मूल दृष्टि है। समूचा जैन दर्शन इसी पर आधारित है । ६४ श्री देवेन्द्र मुनि ने तो जैन दर्शन और जैन अनेकांतवाद की एक ही कह डाला है। उनके अनुसार दोनों एक दूसरे के पर्यायवाची हैं। उनका कहना है कि अनेकांतवाद जैन दर्शन की चिंतन धारा का मूल स्रोत है, जैन दर्शन का हृदय है, जैन वाङ्मय का एक भी ऐसा वाक्य नहीं जिसमें अनेकांतवाद का प्राण तत्त्व न रहा हो । यदि यह कह दिया जाये तो तनिक भी अतिशयोक्ति न होगी कि जहाँ पर जैन धर्म है वहाँ पर अनेकांतवाद है और जहाँ पर अनेकांतवाद है, वहीं जैन धर्म है। " ६५
सन्दर्भ -
१.
२.
जैनेन्द्र सिद्धांत कोश, जिनेन्द्रवर्णी भाग - १, पृ० १०५ दिगम्बर जैन महासमिति बुलेटिन, मई ७९ पृ० -६
305
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org