Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 474
________________ अनेकान्तवाद : एक दार्शनिक विश्लेषण 409 और पिताजी की अपेक्षा 'नीचे' हूँ; क्योंकि माँ पहली मंजिल और पिताजी सातवीं मंजिल पर हैं। इतना भी नहीं समझते? ऊपर-नीचे की स्थिति सापेक्ष है। बिना अपेक्षा ऊपर-नीचे का प्रश्न ही नहीं उठता। वस्तु की स्थिति पर से निरपेक्ष होने पर भी उसका कथन सापेक्ष होता है। अनेकान्त : समता का स्रोत जिसके जीवन में अनेकान्त दृष्टि होती है, उसके जीवन में समता का भाव आ जाता है। महाकवि कालिदास ने कहा है कस्यैकान्तं सुखमुपनतं दुःखमेकान्ततो वा । नीचैर्गच्छत्युपरिच दशा चक्रनेमिक्रमेण ।। अर्थात् (संसारावस्था में) एकान्त रूप से किसे सुख की प्राप्ति हुई अथवा ऐकान्तिक रूप से किसे दुःख की प्राप्ति हुई है? सुख और दुःख की अवस्था चक्र के आरे के समान नीचे-ऊपर होती रहती है। तात्पर्य यह कि सुख और दुःख दोनों सापेक्ष हैं। जो इनकी सापेक्षता को समझ लेता है, वह सुख की स्थिति आने पर उसमें अत्यधिक मगन नहीं होता है और दुःख की स्थिति में अत्यधिक घबड़ाता नहीं है। उसके जीवन में समता आ जाती है। जैन परम्परा का साम्य दृष्टि पर इतना अधिक भार है कि उसने साम्य दृष्टि को ही ब्राह्मण परम्परा में लब्धप्रतिष्ठ ब्रह्म कहकर साम्यदृष्टि पोषक सारे आचार-विचार को 'ब्रह्मचर्य' 'बम्भचेराई' कहा है, जैसा कि बौद्ध परम्परा ने मैत्री आदि भावनाओं को ब्रह्मविहार कहा है। इतना ही नहीं पर धम्मपद और शान्तिपर्व की तरह जैनग्रन्थ में भी 'समत्व धारण करने वाले श्रमण को ही ब्राह्मण कहकर श्रमण और ब्राह्मण के बीच का अन्तर मिटाने का प्रयत्न किया है५१। विचार में साम्यदृष्टि की भावना पर जो भार दिया गया है, उसी में से अनेकान्तदृष्टि या विभज्यवाद का जन्म हुआ है। केवल अपनी दृष्टि या विचारसरणी को ही पूर्व अन्तिम सत्य मानकर उस पर आग्रह रखना साम्यदृष्टि के लिए घातक है। इसलिए कहा गया है कि दूसरों की दृष्टि का भी उतना ही आदर करना, जितना अपनी दृष्टि का, यही साम्यदृष्टि अनेकान्तवाद की भूमिका है। इस भूमिका में से ही भाषा प्रधान स्याद्वाद और विचारप्रधान नयवाद का क्रमश: विकास हुआ है। अनेकान्तवादी : सत्य का प्रयोक्ता अनेकान्तवादी सत्य का प्रयोक्ता होता है। आधुनिक युग में इसके सबसे बड़े दृष्टान्त महात्मा गाँधी हैं। उन्होंने अपनी आत्मकथा को सत्य के प्रयोग कहा है। उनका कहना था - "अपने प्रयोगों के सम्बन्ध में मैं किसी तरह की सम्पूर्णता का दावा नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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