Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

Previous | Next

Page 488
________________ अनेकान्तवाद सरोज के० वोरा जैनधर्म और उसका दर्शन भारत के प्राचीनतम धर्मों में से एक महत्त्वपूर्ण धर्म के रूप में भारतीय तथा पाश्चात्य विद्वानों द्वारा स्वीकृत है। उसका दर्शन जहाँ तर्क व चिन्तन से समृद्ध है, वहाँ उसका आचारपरक धर्म श्रद्धानिष्ठ व्यवहार की भूमिका पर संस्थित होने से यर्थाथवादी है। जैन धर्म की यह सर्वश्रेष्ठ विशिष्टता कही जाएगी कि उसने आचार में सर्वहितकारी अहिंसा, प्रेम तथा करुणा के श्रेष्ठ तत्त्व तथा व्यवहार में संक्लेशहारी अपरिग्रह की वृत्ति का दृष्टिबिन्दु विश्व को दिया। अहिंसा की तरह अनेकान्तवाद जैनदर्शन की विशेषता व्यंजित करता है। जैन धर्म सबके साथ समान दृष्टिकोण रखते हुए भी अपना स्वतंत्र अस्तित्व लिए हुए है। व्यक्ति और समष्टि को समझने का, देखने-परखने का उसका निजी दृष्टिकोण है। विश्व को सही अर्थ में तौलने की उसकी दृष्टि वेदान्त, सांख्य और बौद्ध एवं अन्य दार्शनिक धाराओं से भिन्न होते हुए भी किसी का अनादर या तिरस्कार नहीं करती। अन्य विचार धारा के अच्छे तत्त्वों का समायोजन करने और अपने तत्त्वों के दृष्टि बिन्दुओं को स्पष्ट करने का प्रयत्न करना- यही स्याद्वाद की भूमिका है। डॉ० सागरमल जी जैन के विचारानुसार अनेकान्तवाद कोई वाद (Ism) न होकर एक प्रणाली है, एक शैली है। इसे एक धरातल भी कह सकते हैं, जिस पर खड़े रहकर हम दूर तक देख सकते हैं। ज्ञान की प्रक्रिया में ज्ञाता, ज्ञान और ज्ञान का समूह तीनों का समन्वय होता है। ___ किसी भी वस्तु को या बात को एकान्तत: सिद्ध नहीं किया जा सकता। कोई स्थिति चरम या निरपेक्ष नहीं है। सारे कथन कुछ विशिष्ट स्थितियों और सीमाओं के अधीन ही सत्य हैं। समस्त वस्तुएं अनन्त धर्मात्मक हैं। प्रत्येक गुणधर्म को एक विशेष अर्थ में ही सत्य कहा जा सकता है। वस्तुएं अनंतधर्मात्मक हैं। अत: किसी वस्तु का यथार्थ ज्ञान प्राप्त करना हो तो उसपर सभी पहलुओं से विचार करना होगा। जिस तरह किसी प्रासाद का एक ओर Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 486 487 488 489 490 491 492 493 494 495 496 497 498 499 500 501 502 503 504 505 506 507 508 509 510 511 512 513 514 515 516 517 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552