Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 489
________________ 424 Multi-dimensional Application of Anekantavāda से चित्र लिया जाय तो वह उसका संपूर्ण परिचय नहीं हो सकता, क्योंकि बाह्य रूप से वह संपूर्णत: एकांगी निरीक्षण होगा उसी तरह विश्व की प्रत्येक वस्तु का अनेक दृष्टि बिन्दुओं और पहलुओं से सूक्ष्म निरीक्षण करने से ही यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो सकता है। इसी प्रक्रिया का नाम “अनेकान्तवाद' है। यद्यपि वस्तु में सभी गुणधर्म (Characteristics) मौजूद हैं, फिर भी प्रत्येक व्यक्ति अपनी-अपनी दृष्टि से, थोड़े-बहुत गुणधर्म ही व्यक्त कर पाता है संपूर्ण नहीं दूसरे शब्दों में वस्तु का सापेक्ष ज्ञान ही हो सकता है निरपेक्ष नहीं। इसी सापेक्षता को व्यक्त करने के लिए ही 'स्यात्' किसी अपेक्षा से शब्द का प्रयोग जैन दर्शन में होता है। “प्रत्येक वस्तु अनन्त धर्मात्मक हुआ करती है। वस्तु के सन्दर्भ में व्यक्ति का ज्ञान आंशिक हो सकता है, पूर्ण नहीं। उसके सभी पहलुओं (aspects) पर गौर करने पर ही उसके भिन्न-भिन्न स्वरूप को जान सकते हैं।" विचारजगत् का अनेकान्तवाद ही नैतिक जगत् में आकर अहिंसा के व्यापक सिद्धान्त का रूप धारण कर लेता है। इसलिए जहाँ अन्य दर्शनों में परमत खण्डन पर अधिक बल दिया जाता है, वहाँ जैनदर्शन का मुख्य ध्येय अनेकान्त के सिद्धान्त पर वस्तुस्थिति मूलक विभिन्न मतों का समन्वय रहा है। अनेकान्तवाद हमें वस्तु के यथार्थ ज्ञान में महत्त्वपूर्ण योगदान देता है। वस्तु का जैसा स्वरूप है, वैसा ही वस्तु के पदार्थ ज्ञान के लिए-सत्य की तीव्र जिज्ञासा, समभाव एवं तटस्थ दृष्टि बिन्दु ये तीन महत्त्वपूर्ण बिन्दु हैं। परीक्षण, निरीक्षण, तर्क के आधार पर तत्त्वार्थ को समझने के लिए हमें तटस्थ बुद्धि की आवश्यकता रहती है, जो 'अनेकान्तवाद' से ही प्राप्त हो सकती है। वस्तु अनेक रूपात्मक होती है इसलिए उसपर अनेक दृष्टि बिन्दुओं से विचार अपेक्षित है। हमारे विचारने से या इच्छा से वह वस्तु वैसी नहीं बन सकती है। वस्तु का उसका अलग स्वरूप होता है। आचार्य धर्मकीर्ति का यह श्लोकांश द्रष्टव्य है- “यदीदं स्वयमर्थेभ्यो रोचते, तत्र के वयम् ?"१ किसी परम्परागत मान्यता के सम्मुख नतमस्तक न होकर स्वतंत्र दृष्टि से वस्तु को देखने की तथा उसके सम्बन्ध में अन्यान्य मतवादों के मर्म को निष्पक्ष भाव से समझकर उचित महत्त्व प्रदान न करने की प्रवृत्ति ही अनेकान्त की जन्मस्थली है। "आग्रहीवत् निनीषति युक्तिं तत्र, यत्र मतिरस्य निविष्टा । । पक्षपात रहितस्य तु युक्तिर्यत्र, तत्र मतिरेति निवेशम् ।।''२ अर्थात् अनाग्रही एवं समभाव वाला व्यक्ति नितान्त निष्पक्ष दृष्टि से वस्तु को देखने का प्रयत्न करता है। वह वस्तु के कतिपय अंशों को नहीं बल्कि संपूर्ण स्वरूप को देखता है। इस वृत्ति का प्रतिफलन ही अनेकान्त का उद्भव है। जैसे किसी मशीन को समझने के लिए उसके पुों को समझना भी जरूरी है वैसे ही किसी पदार्थ को Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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