Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 490
________________ अनेकान्तवाद 425 ठीक से स्वीकार करने से पहले वह किन तत्त्वों से बनी है और सबके द्वारा कैसी स्वीकृत हो सकती है, यह देखना आवश्यक है। आइंस्टाईन का सापेक्षवाद, भगवान् बुद्ध का विभज्यवाद इसी भूमिका पर खड़ा है। सर्वत्र रहे हुए सत्यखण्डों को जोड़कर सत्य के दर्शन का सिद्धान्त जैनदर्शन का अनेकान्तवाद है। "वस्त में अनेक धर्मों के समूह को मानना अनेकान्तवाद है।” (अम्यते गम्यते निश्चीयते इति अन्तः धर्म:। न एक: अनेकः। अनेक साचौ अन्तश्च रहित अनेकान्तः।'३ अनेकान्तवाद को स्याद्वाद भी कहते हैं। अनेकान्तात्मक अर्थ के कथन पद्धति को स्याद्वाद कहते हैं।"१ दृष्टान्त के लिए, हाथी का पैर खम्भे के समान ही है, यह कथन अंश के बारे में पूर्ण सत्य है। अत: निश्चयात्मक अर्थ के लिए 'ही' लगाना आवश्यक है। तथा पूर्ण के बारे में आंशिक सत्य होने से 'भी' लगाना जरूरी है। अनेकान्त के प्रयोग में सावधानी आवश्यक है। अनेकान्त को प्रयुक्त करने में हम इतने विवेकहीन न हो जायें कि वस्तु स्वरूप के विरुद्ध ही कहने लग जायें। यह इसका दुरुपयोग होगा। भगवान् महावीर का स्याद्वादरूपी नयचक्र अत्यन्त पैनी धारवाला है जिस पर अत्यन्त सावधानी से चलना चाहिए। आचार्य समन्तभद्र ने स्याद्वाद को केवलज्ञान' के समान सर्वलब्ध प्रकाशन माना है। भेदमात्र प्रत्यक्ष और परोक्ष का है 'स्याद्वाद केवलज्ञानसर्वतत्त्व प्रकाशने । भेदः साक्षावसाक्षाच्च ही वस्त्वन्यनन्तको भवेत् ॥”४ द्रव्य की अपेक्षा से वस्तुनित्य है और पर्याय की अपेक्षा से वह अनित्य है। अपेक्षा भेद से एक समय में एक ही जगह विरुद्ध धर्मों का समावेश दिखाई पड़ता है। जैसे पिता की अपेक्षा से जो पुत्र है वही पुत्र की अपेक्षा से पिता है।५ द्रव्य और क्षेत्र की दृष्टि से वस्तु विशेषगुण धर्मी है और काल तथा भाव की दृष्टि से अनंत गुणवाली होती है। ___ रूप, रस, आकृति आदि अपने गुण धर्मों की अपेक्षा से प्रत्येक पदार्थ सत् कहा जाता है। दूसरों के गुण धर्मों की अपेक्षा से कोई पदार्थ सत् नहीं कहा जाता जैसे कोई व्यक्ति पिता कहा जाता है तो वह अपने पत्र की अपेक्षा से ही न कि दूसरे के पत्र के सम्बन्ध से । पदार्थ अपने गुणधर्मों से युक्त होता है, अन्य के गुणों से नहीं। तीनों काल में रहने वाले अपरिचित सहभावी और क्रमभावी धर्मयुक्त वस्तु अनंतधर्मात्मक मानी जाती है, वस्तु चाहे चेतन हो या अचेतन हो (सब द्रव्य अनेक धर्मात्मक हैं) आचार्य हरिभद्र ने इस विषय में कहा है ___ 'अनन्त धर्मकं वस्तु प्रमाण विषयस्त्विह।' ६ जैनदर्शन की मान्यता है कि प्रत्येक वस्तु में क्षण-क्षण परिवर्तन होते रहते हैं लेकिन उसमें रहने वाले द्रव्यत्व की स्थिति ध्रौव्य (स्थिर, अचल) है अत: प्रत्येक वस्तु त्रयात्मक है। घट का नाश होने पर भी मिट्टी और घड़े के टुकड़े तो मिलते हैं, Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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