Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 473
________________ 408 Multi-dimensional Application of Anekantavāda का असाधारण गुण है। इसलिए ज्ञान की प्रसिद्धि के द्वारा उसके लक्ष्य-आत्मा की प्रसिद्धि होती है। - अनेकान्त की महत्ता : कतिपय दृष्टान्त वस्तु एक, रूप अनेक (१) एक सुन्दर स्त्री का शव किसी वन में पड़ा हुआ था। उसे देखकर एक कामी व्यक्ति के मन में उसके प्रति राग उत्पन्न हुआ। उसी शव को जब एक साधु ने देखा तो संसार और शरीर के स्वरूप का विचार कर उसकी वैराग्य भावना बढ़ी। उस स्त्री के पति ने जब उस शव को देखा तो उसके मन में उसके प्रति और अधिक मोह उत्पन्न हुआ। एक कुत्ता जब उधर से गुजरा तो उस शव को उसने अपना भक्ष्य समझा। एक चोर ने जब उसे देखा तो उसकी दृष्टि उसके पहने हुए आभूषणों पर गई। उसने सोचा, क्या ही अच्छा होता, यदि ये आभूषण मुझे प्राप्त हो जाते। चिकित्सा की शिक्षा ग्रहण करने वाले एक छात्र ने उसे देखा तो उसके मन में यह कल्पना हुई कि यह शव मुझे प्राप्त हो जाता तो मै इसके अङ्गों को चीड़-फाड़ कर इसकी शारीरिक रचना का अध्ययन करता। एक पुलिस वाला उधर से गुजरा तो उसके मन में यह इच्छा हुई कि इस स्त्री की मौत किन परिस्थितियों में हुई, इसकी जाँच करनी चाहिए। कहीं इसकी किसी ने हत्या तो नहीं कर दी। एक वस्त्र को बुनने वाले ने जब उस स्त्री को देखा तो. सोचा, इसने कितनी सुन्दर साड़ी पहन रखी है। इसका बनाने वाला कितना दक्ष रहा होगा, जिसने इतनी सुन्दर और महीन साड़ी का निर्माण किया। इस प्रकार एक ही स्त्री के शव के विषय में भिन्न-भिन्न पहलुओं की अपेक्षा विचार करने पर विभिन्नता रही। (२) एक दिन कुमार वर्द्धमान राजमहल की चौथी मंजिल पर एकान्त में विचार मग्न बैठे थे। उनके बाल-साथी उनसे मिलने को आए और वर्द्धमान कहां है पूछने पर माँ ने सहज ही कह दिया, 'ऊपर'। सब बालक ऊपर को दौड़े और हाँफते हुए सातवीं मंजिल पर पहुँचे, पर वहाँ वर्द्धमान को न पाया। जब उन्होंने स्वाध्याय में संलग्न राजा सिद्धार्थ से वर्द्धमान के सम्बन्ध में पूछा तो उन्होंने बिना गर्दन उठाए ही कह दिया 'नीचे'। ___माँ और पिता के परस्पर विरुद्ध कथनों को सुनकर बालक असमंजस में पड़ गए। अन्तत: उन्होंने एक-एक मंजिल खोजना आरम्भ किया और चौथी मंजिल पर वर्द्धमान को विचारमग्न बैठे पाया। सब साथियों ने उलाहने के स्वर में कहा, 'तुम यहाँ छिपे दार्शनिकों की सी मुद्रा में बैठे हो और हमने सातों मंजिलें छान डालीं। 'माँ से क्यों नहीं पूछा? वर्द्धमान ने सहज प्रश्न किया। साथी बोले, “पूछने से ही तो सब कुछ गड़बड़ हुआ। माँ कहती हैं - 'ऊपर' और पिताजी 'नीचे'। कहाँ खोजें? कौन सत्य है? वर्द्धमान ने कहा, “दोनों सत्य हैं। मैं चौथी मंजिल पर होने से माँ की अपेक्षा 'ऊपर' Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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