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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
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आत्मा यद्यपि अनेक रूप है, तथापि निश्चयनय से एक अखण्ड द्रव्य है। हे भगवान्! आपने अनन्त ज्ञान और अनन्त दर्शन का लक्ष्य इसी एक अखण्ड आत्मा को बनाया है। एक आत्मा अनेक ज्ञानात्मक है
पञ्चास्तिकाय में आचार्य कुन्दकुन्द ने कहा हैण वियघदि णाणादो णाणी णाणाणि होति णेगाणि । तम्हा दु विस्स रूवं भणियं दवियं त्ति णाणीहिं ।।४३।।
ज्ञान से ज्ञानी का भेद नहीं किया जाता, तथापि ज्ञान अनेक है, इसलिए तो ज्ञानियों ने द्रव्य को विश्वरूप कहा है।
ज्ञानी, ज्ञान से पृथक् नहीं है; क्योंकि दोनों एक अस्तित्व से रचित होने से दोनों को एकद्रव्यपना है, दोनों के अभिन्न प्रदेश होने से दोनों को एक क्षेत्रपना है, दोनों एक समय में रचे जाने से दोनों को एक कालपना है, दोनों का एक स्वभाव होने से दोनों को एक भावपना है, किन्तु ऐसा कहा जाने पर भी एक आत्मा में अभिनिबोधिक आदि अनेक ज्ञान विरोध नहीं पाते; क्योंकि द्रव्य विश्वरूप है। द्रव्य वास्तव में सहवर्ती और क्रमवर्ती ऐसे अनन्त गुणों तथा पर्यायों का आधार होने के कारण अनन्त रूपवाला होने से, एक होने पर भी विश्वरूप कहा जाता है। जीव अनादि अनन्त, सादि सान्त और सादि अनन्त हैं
जीव वास्तव में सहज चैतन्य लक्षण पारिणामिक भाव से अनादि, अनन्त हैं। वे ही औदयिक, क्षायोपशमिक और औपशमिक भावों से सादि सान्त हैं। वे ही क्षायिक भाव से सादि-अनन्त हैं।
क्षायिक भाव आदि होने से वह सान्त होगा'- ऐसी आशंका करना योग्य नहीं है। (कारण इस प्रकार है-) वह वास्तव में उपाधि की निवृत्ति होने पर प्रवर्तता हुआ, सिद्धभाव की भाँति जीव का सद्भाव ही है (अर्थात् कर्मोपाधि के क्षयरूप से प्रवर्तता है, इसलिए क्षायिकभाव जीव का सद्भाव ही है); और सद्भाव से तो जीव अनन्त ही स्वीकार किये जाते हैं। (इसलिए क्षायिक भाव से जीव अनन्त अर्थात् विनाशरहित ही हैं।)
पुनश्च, 'अनादि-अनन्त सहज चैतन्य लक्षण एक भाववाले उन्हें सादि सांत और सादि-अनंत भावान्तर घटित नहीं होते अर्थात् जीवों को एक पारिणामिक भाव के अतिरिक्त अन्य भाव घटित नहीं होते)' ऐसा कहना योग्य नहीं है; (क्योंकि) वे वास्तव में अनादि कर्म से मलिन वर्तते हुए कीचड़ से संपृक्त जल की भाँति तदाकार रूप परिणित होने के कारण, पाँच प्रधान गुणों से प्रधानता वाले ही अनुभव में आते है४३॥
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