Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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अनेकान्तवाद : एक दार्शनिक विश्लेषण
डॉ० रमेशचंद्र जैन
अनेकान्त की स्तुति
आचार्य प्रभाचन्द्र ने अनेकान्त की स्तुति में कहा है -
यो ऽनेकान्तपदं प्रवृद्धमतुलं स्वेष्टार्थसिद्धिप्रदम् । प्राप्तोऽनन्तगुणोदयं निखिलवन्नि:शेषतो निर्मलम् ।। स श्रीमानखिलप्रमाणविषयो जीयाज्जनानन्दनः । मिथ्यैकान्तमहान्धकाररहितः श्रीवर्द्धमानोदितः ।।
___(प्रमेयकमलमार्तण्ड पृ. ५१३ द्वि० भाग) अर्थात् जो अनेकान्त पद को प्राप्त है, ऐसा अखिल प्रमाण का विषय जयशील हो। वह अनेकान्त पद प्रवृद्धशाली एवं अतुल है तथा अपने इष्ट अर्थ की सिद्धि को देने वाला है, उसमें अनन्त गुणों का उदय है, वह पूर्ण रूप से निर्मल, जीवों को आनन्दित करने वाला, मिथ्या एकान्त रूप महान अन्धकार से रहित तथा श्री वर्द्धमान तीर्थंकर के द्वारा प्रतिपादित है।
अनेकान्त का स्वरूप
किसी भी वस्तु को उसके अनेक पहलुओं से देखना, जाँचना अथवा उस तरह देखने की वृत्ति रखकर वैसा प्रयत्न करना ही अनेकान्तदृष्टि है। अन्त कहते हैं अंश अथवा धर्म को। जैनदर्शन के अनुसार प्रत्येक वस्तु अनेक धर्मात्मक अथवा अनेकधर्म वाली है। न वह सर्वथा सत् ही है और न सर्वथा असत् ही है, न वह सर्वथा नित्य ही है और न वह सर्वथा अनित्य ही है, किन्तु किसी अपेक्षा से वस्तु सत् है तो किसी अपेक्षा से असत् है, किसी अपेक्षा से नित्य है तो किसी अपेक्षा से अनित्य है। अत: सर्वथा, सत्, सर्वथा असत्, सर्वथा नित्य, सर्वथा अनित्य इत्यादि एकान्तों का निरसन करके वस्तु का कथंचित् सत्, कथंचित् असत्, कथंचित् नित्य, कथंचित् अनित्य आदि रूप होना अनेकान्त है।
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