Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
समयसार कलश में भी कहा है। उत्पन्न होने वाला प्रत्येक कार्य अपने परिणमन को ही कारणरूप से स्वीकृत करता है, अन्य पदार्थ को नहीं, जैसे मिट्टी से घट बनता है। यहाँ घट कार्य है और मिट्टी उसका कारण अथवा कर्ता है। अध्यात्म की दृष्टि में कर्तृकर्मभाव अथवा कारण कार्यभाव एक ही द्रव्य में बनता है, दो द्रव्यों में नहीं। दो द्रव्यों में निमित्त नैमित्तिक भाव बनता है, इसलिए जो द्रव्यकार्य है, वही द्रव्य उसका कारण होता है, मात्र पूर्व और उत्तरक्षण की अपेक्षा उसमें कारण और कार्य का भेद होता है। पूर्वक्षणवर्ती पर्याय कारण है और उत्तरक्षणवर्ती पर्याय कार्य है। कर्ता और कर्म के विषय में अनेकान्त
व्यवहारनय के आश्रय से कहा जाता है कि कर्ता अन्य होता है और कर्म अन्य होता है, परन्तु निश्चयनय की मान्यता है कि जो कर्ता होता है, वही कर्म होता है; क्योंकि परमार्थ से कर्ता, क्रिया और कर्म ये तीनों पृथक्-पृथक् नहीं हैं। आधाराधेयभाव के विषय में अनेकान्त
__व्यवहारनय दो भिन्न पदार्थों में आधाराधेयभाव को मानता है, परन्तु निश्चयनय एक ही पदार्थ में आधाराधेयभाव को स्वीकृत करता है। पूर्णता और रिक्तता के विषय में अनेकान्त
लघुतत्त्वस्फोट में कहा गया है
पूर्णः पूर्णो भवति नियतं रिक्त एवास्ति रिक्तो रिक्तः पूर्णस्त्वमसि भगवन् पूर्ण एवासि रिक्तः । यल्लोकानां प्रकटमिह ते तत्त्वघातोद्यतं तद्
यत्ते तत्त्वं किमपि न हि तल्लोकदृष्टं प्रमार्टि ॥२२/१२।।
हे भगवन्! जो पूर्ण होता है, वह नियम से पूर्ण ही होता है और जो रिक्त है, वह रिक्त ही रहता है, परन्तु आप रिक्त होकर भी पूर्ण हैं और पूर्ण होकर भी रिक्त हैं। इस जगत् में लोगों के मध्य जो प्रकट है कि पूर्ण पूर्ण ही रहता है और रिक्त रिक्त ही रहता है, वह आपके तत्त्व का घात करने वाला है, परन्तु आपका जो कोई अनिर्वचनीय महिमा से युक्त तत्त्व है, वह निश्चय से लोक में देखे गए तत्त्व को नष्ट नहीं करता है अर्थात् लोकसिद्ध तत्त्व का प्रतिपादन करता है।
भगवान् रिक्त होकर भी पूर्ण हैं; क्योंकि कर्मोदयजन्य विकारी भावों से रहित होकर भी स्वाभाविक ज्ञानादि गुणों से पूर्ण हैं और स्वाभाविक गुणों से पूर्ण होकर भी उपाधिजन्य विकारी भावों तथा द्रव्यकर्म और नोकर्म से रहित हैं। भेदाभेदात्मक तत्त्व
___ गुण और गुणी में, सामान्य और सामान्यवान् में, अवयव और अवयवी में, कारण और कार्य में सर्वथा भेद मानने से गुण-गुणी भाव आदि नहीं बन सकते। सर्वथा
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