Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
और तीसरे गुणार्थिक नय की भी व्यवस्था होनी चाहिए। इस शङ्का का समाधान आचार्य सिद्धसेन, अकलङ्क और विद्यानन्द तीनों तार्किकों ने किया है। सिद्धसेन१८ ने बतलाया कि गुण पर्याय से भिन्न नहीं - पर्याय में ही गण संज्ञा जैनागम में स्वीकृत है और इसलिए गुण तथा पर्याय एकार्थक होने से पर्यायार्थिक नय द्वारा ही गुण का ग्रहण होने से गुणार्थिक नय पृथक् उपदिष्ट नहीं है। अकलङ्कदेव कहते हैं कि द्रव्य का स्वरूप सामान्य और विशेष दोनों रूप है तथा सामान्य, उत्सर्ग, अन्वय और गुण ये सब उसके पर्यायवाची शब्द हैं तथा विशेष, भेद, पर्याय ये तीनों विशेष के पर्यायवाची हैं। अत: सामान्य को ग्रहण करने वाला द्रव्यार्थिक और विशेष को विषय करने वाला पर्यायार्थिक नय है। अतएव गुण का ग्राहक द्रव्यार्थिक नय ही है; उससे भिन्न गुणार्थिक नय प्रतिपादित नहीं हुआ अथवा गुण और पर्याय अलग अलग नहीं हैं - पर्याय का ही नाम गुण है।
आचार्य सिद्धसेन और अकलङ्क के इन समाधानों के बाद भी शङ्का उठायी गयी कि यदि गुण द्रव्य या पर्याय से अतिरिक्त नहीं है तो द्रव्य लक्षण में गुण और पर्याय दोनों का निवेश क्यों किया? 'गुणवद् द्रव्यम्' या 'पर्यायवद् द्रव्यम्' इतना ही लक्षण पर्याप्त था? इसका उत्तर आचार्य विद्यानन्द१९ ने जो दिया वह बहुत ही महत्त्वपूर्ण एवम् सूक्ष्म प्रज्ञा से भरा हुआ है। वे कहते हैं कि वस्तु दो तरह के अनेकान्तों का रूप (पिण्ड) है- १. सहानेकान्त और २. क्रमानेकान्त। सहानेकान्त का ज्ञान कराने के लिए गुणयुक्त को और क्रमानेकान्त का निश्चय कराने के लिए पर्याययुक्त को द्रव्य कहा है। अत: द्रव्य लक्षण में गुण तथा पर्याय दोनों पदों का निवेश युक्तियुक्त तथा सार्थक है।
द्रव्य विषयक अनेकान्त द्रव्य का लक्षण
द्रव्य का लक्षण सत् है। जिसमें उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीनों पाए जाँय उसे सत् कहते हैं। तात्पर्य यह कि जो उत्पन्न होता है, जो विलीन होता है तथा जो ध्रुव-सदा स्थिर है, उसको सत् कहते हैं, यही सत् का लक्षण है। इस स्वभाव से जो रहित है, उसको असत् समझना चाहिए। एक बार गौतम गणधर ने भगवान् महावीर से पूछा - किं तच्चं? तत्त्व क्या है?
भगवान ने कहा - उप्पन्नेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा अर्थात् उत्पन्न होना, विनष्ट होना और ध्रुव रहना तत्त्व है। जैसे - एक मनुष्य सुवर्ण के घड़े को चाहता है, दूसरा मनुष्य सुवर्ण के मुकुट को चाहता है और तीसरा मनुष्य केवल स्वर्ण को चाहता है। स्वर्णकार ने स्वर्ण घट को तोड़कर मुकुट बनाया। उस समय सुवर्ण-घट के नष्ट हो
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