Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 453
________________ Multi-dimensional Application of Anekantavāda आदि आठों ही स्पर्श पाए जाते हैं, अतः इस घड़े में भी आठों ही स्पर्श का कथन किया गया है। शब्द की दृष्टि से घड़ा नाना देश की अपेक्षा घटादि अनेक शब्दों के द्वारा वाच्य होने से अनेक ही स्वधर्म होंगे तथा जिन पटादि अनन्त पदार्थों में घट के वाचक शब्दों का प्रयोग नहीं होता, उन सबसे घड़ा व्यावृत्त होता है, अतः अनन्त ही परधर्म होते हैं अथवा घड़े के जितने स्वधर्म कहे हैं तथा कहे जायेंगे, उनके वाचक जितने भी शब्द हैं, उतने ही घड़े के स्वधर्म हैं तथा अन्य पदार्थों के वाचक जितने शब्द हैं, उतने ही परधर्म हैं। संख्या की अपेक्षा भी घड़े में स्वधर्म और परधर्म होते हैं। भिन्न-भिन्न द्रव्यों की अपेक्षा घड़े में पहला, दूसरा, तीसरा, चौथा, अनन्त संख्या तक के व्यवहार हो सकते हैं। ये सभी स्वधर्म हैं तथा इन संख्याओं के अविषयभूत पदार्थों से व्यावृत होने के कारण वे सब परधर्म हैं अथवा घड़े के परमाणुओं की जितनी संख्या तथा उसके वजन के रत्तियों की जितनी संख्या है, वह संख्या स्वधर्म है और वह संख्या जिन अनन्त पदार्थों में नहीं पायी जाती, वे सब परधर्म हैं। अनन्तकाल से उसे घड़े का सभी द्रव्यों के साथ संयोग तथा विभाग होता रहा है, अतः वे संयोग और विभाग स्वधर्म हैं तथा जिनमें वे संयोग और विभाग नहीं पाए जाते, उन अनन्त पदार्थों से घड़े की व्यावृत्ति होती है, अत: वे परधर्म हैं। परिमाण माप की अपेक्षा भी घड़े में स्वधर्म और परधर्म होते हैं। घड़ा किन्हीं बड़े मकान आदि परद्रव्यों की अपेक्षा छोटा, छोटे लोटा आदि की अपेक्षा बड़ा, लम्बा, ठिगना आदि अनन्त प्रकार के माप वाला कहा जा सकता है, ये सब स्वधर्म हैं तथा अन्य परधर्म। घड़ा जिन समस्त परपदार्थों से पृथक् है, वे सब परपर्याय हैं तथा जिनसे पृथक् नहीं है, वे स्वपर्याय हैं। काल की अपेक्षा वही घड़ा किसी से एक क्षण पुराना है तो किसी से दो क्षण, किसी से एक घड़ी, दो घड़ी, एक दिन, माह, वर्ष, युगादि पुराना है तो वही घड़ा किसी से एक, दो, चार क्षण नया अथवा किसी से एक दिन, माह, वर्ष या युगभर नया होता है। तात्पर्य यह कि घड़ा अन्य पदार्थों की अपेक्षा एक क्षण से लेकर अनन्त वर्ष तक का नया या पुराना होता है, अतः ये सब उसके स्वधर्म हैं। ज्ञान की अपेक्षा वही घड़ा संसार के अनन्त जीवों के अनन्त ही प्रकार के मतिज्ञान, श्रुतज्ञान, विभंगादि अवधिज्ञान आदि का स्पष्ट या अस्पष्ट रूप से विषय होता है। ग्राहक ज्ञान में भेद होने से उसकी अपेक्षा ग्राह्य विषयभूत पदार्थ में भी भेद होता ही है। यदि पदार्थ एक रूप ही रहे तो उसको जानने वाले ज्ञानों में भी स्वभावभेद नहीं होगा, वे सर्वथा एक रूप ही हो भी जायेंगे। इस तरह घड़े को जानने वाले अनन्त ज्ञानों की अपेक्षा घड़े में भी अनन्त ही स्वभाव भेद हैं और ये सब उसके स्वधर्म हैं। 388 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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