Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
समन्वय, शान्ति और समत्व योग का आधार अनेकान्तवाद
321
व्यक्ति बेटा भी है और बाप भी । अपने बेटे की अपेक्षा से वह बाप है और अपने बाप की अपेक्षा से वह बेटा है । विरोधी समागम की बात भारतीयों के लिए कोई नई नहीं और न वह मार्क्स की ही कोई सूझ है। आज से सहस्त्रों वर्ष पूर्व भारतीय दार्शनिक अपनी तीव्र मनीषा से इस विषय का मन्थन करते रहे हैं। गुणात्मक परिवर्तन
द्वन्द्वात्मक भौतिकवादियों की सबसे बड़ी भूल यह हुई कि गुणात्मक परिवर्तन का अर्थ उन्होंने यह माना कि जो नहीं था वह उत्पन्न हुआ। वस्तु के यौगिक व स्वाभाविक परिवर्तन को देखकर वे इस मंतव्य पर पहुँचे। भारतीय दार्शनक, जगत् की परिवर्तनशीलता को सहस्रों वर्ष पूर्व परख चुके थे। जैन दार्शनिकों ने तो वस्तु का धर्म ही त्रिविधात्मक बताया, 'उत्पाद व्यय ध्रौव्य युक्तं सत्' अर्थात् वस्तु वह है जिसके अन्तर में उत्पत्ति, नाश और निश्चलता एक साथ रहती है। प्रत्येक वस्तु में पूर्व-पर्याय का नाश, उत्तर-पर्याय (स्वभाव) की उत्पत्ति व मूल स्वभाव की निश्चलता वर्तमान है। उन्होंने बताया, 'अनन्त धर्मात्मकं वस्तु' अर्थात् प्रत्येक वस्तु में अनन्त स्वभाव हैं। उनमें से जीर्ण का व्यय है, नवीन का उत्पाद है और वस्तुत्व का ध्रौव्य है। ब्रह्माण्ड के मूल उपादान परमाणु प्रस्तुत स्वरूप को छोड़ते हैं, अनागत को ग्रहण करते हैं किन्तु उनका परमाणुत्व सदा शाश्वत रहता है। जैन दर्शन के अनुसार कोई रूपी धर्म ऐसा नहीं है, जिसका अस्तित्व परमाणुओं में न हो। विश्व संघटना का दूसरा उपादान जीव-आत्मा व चेतन है। वह भी अनन्तधर्मात्मक है और उत्पाद, व्यय तथा ध्रौव्य की त्रिपदी में वर्तता रहता है, पर जड़-चेतन का अत्यन्त विरोधी है। इसलिए जड़ का चेतन में और चेतन का जड़ में गुणात्मक परिवर्तन नहीं हो सकता। इसी तथ्य की पुष्टि गीताकार ने इन शब्दों में की है
"नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः।” अर्थात् असत् उत्पन्न नहीं होता और सत् का नाश नहीं होता। द्वन्द्वात्मक भौतिकवादी कहते हैं कि गुणात्मक परिवर्तन से जो भाव पैदा होता है, वह उस वस्तु में किसी अंश में पहले नहीं था। वहां तो नितान्त असत् की उत्पत्ति होती है। अत: यह मानना चाहिए कि जड़ के गुणात्मक परिवर्तन से चेतना पैदा होती है। नास्तिकों के सामने जब 'नाऽतद् उत्पद्यते' का सिद्धान्त एक दुरूह चट्टान बनकर खड़ा हो गया तो द्वन्द्वात्मक भौतिकवादियों ने उससे बच निकलने के लिए गुणात्मक परिवर्तन के नाम से असत् उत्पत्ति का मार्ग निकाला । चैतन्य जैसी वस्तु जड़धर्मा न कभी हई, न कभी हो सकती है। जड़ से चैतन्य पैदा होने की बात, अरूप शून्य से घटादि सरूप पदार्थ के पैदा होने की-सी बात है। अल्प और सरूप का, जड़ और चैतन्य का आत्यन्तिक
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org