Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith

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Page 417
________________ 352 Multi-dimensional Application of Anekantavāda क्योंकि द्वि-मूल्यीय तर्क शास्त्र सत्य और असत्य ऐसे दो सत्यता मूल्यों पर चलता है। जब कि जैन सप्तभंगी में असत्यता की कल्पना नहीं है। यद्यपि उसके प्रत्येक भंग में आंशिक सत्यता है किन्तु उसका कोई भी भंग पूर्णत: या निरपेक्षत: असत्य नहीं है। पुन: द्वि-मूल्यीय तर्क शास्त्र के दोनों मानदण्ड निरपेक्ष हैं, किन्तु जैन तर्कशास्त्र इस घटना के विपरीत है; अर्थात् जैन तर्कशास्त्र के अनुसार जो भी कथन निरपेक्ष होगा, वह असत्य हो जायेगा। इसीलिए जैन तर्कशास्त्र केवल सापेक्ष कथन को ही सत्य मानता है। वस्तुत: सप्तभंगी के प्रत्येक भंग सापेक्ष हैं। इसलिए सप्तभंगी में जो भी मूल्यवत्ता निर्धारित होगी, वह सापेक्ष होगी। इस प्रकार सप्तभंगी द्वि-मूल्यात्मक नहीं है। किन्तु क्या वह त्रि-मूल्यात्मक है? ऐसा कहना भी ठीक नहीं लगता कि सप्तभंगी त्रि-मूल्यात्मक है। क्योंकि आधुनिक त्रि-मूल्यीय तर्क शास्त्र से उसकी किसी प्रकार तुलना ठीक नहीं बैठती है। त्रि-मूल्यीय तर्क शास्त्र में कुल तीन मानदण्डों की कल्पना की गयी है- सत्य, सत्य-असत्य (संदिग्ध) और असत्य। सत्य वह जो पूर्णतः सत्य है, जो किसी प्रकार भी सत्य नहीं हो सकता है, और संदिग्ध वह जो सत्य भी हो सकता है और असत्य भी। किन्तु वह एक साथ दोनों नहीं है। वह एक बार में एक ही है अर्थात् वह या तो सत्य है या असत्य है किन्तु उसका अभी निर्णय नहीं हो पाया है। इसी संदिग्धता की तुलना अवक्तव्य भंग से करके कुछ विद्वान जैन सप्तभंगी को त्रि-मल्यात्मक सिद्ध करते हैं। किन्तु यह भूल जाते हैं कि अवक्तव्य की संदिग्धता से कोई तुलना ही नहीं है। अवक्तव्य में आस्तित्व और नास्तित्व दोनों ही धर्म एक साथ हैं, किन्तु उनका प्रकटीकरण असम्भव है। जबकि संदिग्धता में दोनों नहीं है। उसमें तो एक ही है, वह या तो सत्य है या असत्य और उसे प्रकट किया जा सकता है। दूसरे वह संदेह या संभावना पर निर्भर है, जबकि वक्तव्य पूर्णत: सत्य है। उसमें संदेह या संभावना का लेश मात्र भी समावेश नहीं है। तीसरे त्रि-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र में एक तीसरे मूल्य असत्यता (०) की कल्पना है, जो जैन सप्तभंगी के विपरीत है। इसका विवेचन हमने ऊपर किया है, साथ ही हमने यह भी स्पष्ट किया कि सप्तभंगी में सापेक्ष मूल्य का ही निर्धारण किया जा सकता है, निरपेक्ष का नहीं। परन्तु त्रि-मूल्यात्मक तर्कशास्त्र निरपेक्ष मूल्यों पर ही निर्भर करता है। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि जैन सप्तभंगी त्रि-मूल्यात्मक नहीं है। किन्तु मूल प्रश्न यह है कि क्या इसे सप्तमूल्यात्मक या बहुमूल्यात्मक कहा जा सकता है? यद्यपि आधुनिक तर्कशास्त्र में अभी तक कोई भी ऐसा आर्दश सिद्धान्त विकसित नहीं हुआ है, जो कथन की सप्तमूल्यात्मकता को प्रकाशित करे। परन्तु जैन आचार्यों ने सप्तभंगी के सभी भंगों को एक दूसरे से स्वतन्त्र और नवीन तथ्यों का प्रकाशक Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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