Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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सप्तभंगी बहुमूल्यात्मक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में
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५. स्यादस्ति च अवक्तव्य
= P (A. ~C ६. स्यान्नास्ति च अवक्तव्य
= P (~ B. ~C) ७. स्यादस्ति च नास्ति च अवक्तव्य = P (A. ~B. ~C)
प्रस्तुत विवरण में A स्वचतुष्टय, B पर चतुष्टय और C वक्तव्यता के सूचक हैं। B और C का निषेध (~) वस्तु में परचतुष्टय एवं युगपत् वक्तव्यता का निषेध करता है। जैन तर्कशास्त्र की यह मान्यता है कि जिस तरह वस्तु में भावात्मक धर्म रहते हैं, उसी तरह वस्तु में अभावात्मक धर्म भी रहते हैं। वस्तु में जो सत्व धर्म है वे भावरूप हैं और जो असत्व धर्म हैं, वे अभाव रूप हैं। इसी भाव रूप धर्म को विधि अर्थात् अस्तित्व और अभाव रूप धर्म को प्रतिषेध अर्थात् नास्तित्व कहते हैं
सदसदात्मकस्य वस्तुनो य: सदंश: - भावरूप: स विधिरित्यर्थः। सद सदात्मकस्य वस्तुनो सोऽसदंश:- अभावरूप: स प्रतिषेध इति।
वस्तुत: ये अस्तित्व और नास्तित्व दोनों एक ही वस्तु के भिन्न-भिन्न धर्म हैं, जो अविनाभाव से प्रत्येक वस्तु में विद्यमान रहते हैं। कहा भी गया है -
अस्तित्वं प्रतिवेष्येनाविनाभाव्येक धर्मिणि। विशेषणत्वात् साधर्म्यं यथा भेद विवक्षया ।। नास्तित्वं प्रतिषेध्येनाविनाभाव्येकधर्मिणि ।
विशेषणत्वाद्वैधयं यथाऽभेदविवक्षया ।।६
अर्थात् वस्तु का जो अस्तित्व धर्म है, उसका अविनाभावी नास्तित्व धर्म है। इसी प्रकार वस्तु का जो नास्तित्व धर्म है। उसका अविनाभावी अस्तित्व धर्म है। इस प्रकार अस्तित्व के बिना नास्तित्व और नास्तित्व के बिना अस्तित्व की कोई सत्ता ही नहीं है। कहने का तात्पर्य यह है कि अस्तित्व और नास्तित्व दो ऐसे धर्म हैं जो प्रत्येक वस्तु में अविनाभाव से विद्यमान रहते हैं। सप्तभंगी के अस्तित्व और नास्तित्व दो रूप दोनों भंगो में इन्हीं धर्मों का मुख्यता और गौणता से विवेचन किया जाता है । ये दोनों एक दूसरे के विरोधी या निषेधक नहीं हैं। अस्तित्व धर्म दसरे, तो नास्तित्व धर्म दसरे हैं। इसलिए इनमें अविरोध सिद्ध होता है। स्याद्वादमञ्जरी में कहा गया है- “ जिस प्रकार स्वरूपादि से अस्तित्व धर्म का सद्भाव अनुभव सिद्ध है, उसी प्रकार पर रूपादि के अभाव से नास्तित्व धर्म का सद्भाव भी अनुभव सिद्ध है। वस्तु का सर्वथा अर्थात् स्वरूप और पररूप से अस्तित्व ही उसका स्वरूप नहीं है, क्योंकि जिस प्रकार स्वरूप से अस्तित्व वस्तु का धर्म होता है, उसी प्रकार पररूप से भी अस्तित्व वस्तु का धर्म नहीं बन जायेगा। वस्तु का सर्वथा नास्तित्व अर्थात् स्वरूप और पररूप से नास्तित्व भी उसका स्वरूप नहीं है; क्योंकि जिस प्रकार पररूप से नास्तित्व वस्तु का धर्म होता है, उसी प्रकार स्वरूप से भी नास्तित्व वस्तु का धर्म नहीं बन जायेगा।
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