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अनेकान्तवाद की प्रासंगिकता
नागराज पूवणी
मोक्ष मार्गस्य नेतारं भेत्तारं कर्मभूभृताम् । ज्ञातारं विश्व तत्त्वानां.
वंदे.. तद्गुणलब्धये ।। "मैं मोक्षमार्ग के नेता को, कर्मरूपी महान पर्वतों का भेदन करने वाले तथा समस्त विश्व के समग्र तत्त्वों के समुदाय का परिज्ञान रखनेवाले तीर्थंकर भगवान को प्रणाम उनके गुणों की प्राप्ति के लिए कर रहा हूँ।"
उपर्युक्त श्लोक से यह विदित होता है कि जैन धर्म जो विश्वधर्म भी है, का प्रधान आकर्षक सिद्धांत-अनेकान्तवाद ही है।
यह विश्व कितना विशाल है यह दुनियां कितनी व्यापक है, यह धरती कितनी बड़ी है, इस बड़ी धरती के समान ही अनेकों ग्रह, इससे बड़े अनेकों नक्षत्र इस अपार एवं अगाध विश्व में विद्यमान हैं। आधुनिक वैज्ञानिकों का अभिमत है कि हमारे भूलोक जैसे अनेकों लोक-इस महान् विश्व में स्थित हैं। उन सबके विषय में परिपूर्ण ज्ञान तो सर्वज्ञ ही रख सकता है। वस्तु जगत् अनन्त है तथा अनन्त है वस्तुओं के धर्म।
एक ही तत्त्व को, एक ही सिद्धांत को, एक ही सत्य को, एक ही आदर्श को समझकर चलने से मनुष्य का व्यक्तित्व एकांगी या अपूर्ण हो जायेगा। अपूर्ण ज्ञान से मानव भी अपूर्ण रह जाता है। अत: हमारा आदर्श पूर्णता की ओर अनुसंधान करना है।
___ जो कुछ हमारे भीतर, हमारे अंतरंग में है, जो कुछ हमारे हृदय का अभिलषित है तथा इसके लिए हमारी प्रकृति ने हमें सनद्ध किया है, वह सब कुछ मानव समुदाय को ज्ञान-चक्षुओं द्वारा विश्लेषण किये जाने के हेतु सुरक्षित है, वह सब
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