Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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समन्वय, शान्ति और समत्व योग का आधार अनेकान्तवाद
कान्तवाद
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जैन दर्शन युक्तिपूर्ण तथ्यों को ग्रहण करने का सदैव सन्देश प्रस्तुत करता है। उसका व्यक्ति विशेष में कोई आग्रह नहीं बल्कि वह तो सिद्धान्त की उदात्त प्रवृत्ति पर बल देता है। आचार्य हरिभद्र का कथन इसी तथ्य की पुष्टि करता है
“पक्षपातो न मे वीरे, न द्वेषः कपिलादिषु ।।
युक्तिमद् वचनं यस्य, तस्य कार्यः परिग्रह: ११ ।”
भगवान महावीर के प्रति न तो मेरा विशेष अनुराग है, और न ही सांख्य दर्शन के प्रवर्तक कपिल आदि से कोई द्वेष ही है। जिसका कथन युक्तिपूर्ण हो उसे स्वीकार करना चाहिए। पाश्चात्य दर्शन में स्याद्वाद
पाश्चात्य देशों में दर्शन (Philosophy) बुद्धि का चमत्कार रहा है। वहां लोग ज्ञान को मात्र ज्ञान के लिए ही अपने जीवन का लक्ष्य समझते हैं। पाश्चात्य विचारकों के अनुसार दार्शनिक वह है जो जीव, जगत्, परमात्मा, परलोक आदि तत्त्वों का निरपेक्ष विद्यानुरागी हो। पाश्चात्य जगत् का आदि दार्शनिक प्लेटो कहता है - "संसार के समस्त पदार्थ द्वन्द्वात्मक हैं, अत: जीवन के पश्चात् मृत्यु और मृत्यु के पश्चात् जीवन अनिवार्य है।'' इसी प्रकार सुकरात, अरस्तू आदि प्रमुख दार्शनिकों की निष्ठा भी पुनर्जन्म के सिद्धान्त में रही है।
द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद के अनुसार जगत् के परिवर्तन की व्याख्या जगत् से करना वैज्ञानिक भौतिकवाद का ध्येय है। वह परिवर्तन जिन अवस्थाओं से होकर गुजरता है, वे सीढ़ियां वैज्ञानिक भौतिकवाद की त्रिपुटी हैं -
१. विरोधी समागम २. गुणात्मक परिवर्तन, एवं ३. प्रतिषेध का प्रतिषेध
वस्तु के उदर में विरोधी प्रवृत्तियां जमा होती हैं। इसमें परिवर्तन के लिए सबसे आवश्यक वस्तु गति पैदा करना है, फिर वाद व प्रतिवाद के संघर्ष से संवाद रूप में नया गुण पैदा होता है, यह गुणात्मक परिवर्तन है। पहले जो वाद था उसको भी उसकी पूर्णगामी कड़ी से मिलाने पर वह किसी का प्रतिषेध करनेवाला संवाद था, अब गुणात्मक परिवर्तन से जब उसका प्रतिषेध हुआ तो यह प्रतिषेध का प्रतिषेध हुआ
कुछ लोग मानते हैं कि द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद की देन संसार को हीगल ने दी और मार्क्स ने इसे सुव्यवस्थित रूप दिया। कुछ भी हो द्वन्द्वात्मक भौतिकवाद का
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