Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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समन्वय, शान्ति और समत्व योग का आधार अनेकान्तवाद
में भिन्नता आ जाती है। आप चारों व्यक्ति सही हैं। चारों के चित्र हिमालय के चित्र हैं पर इनके साथ स्थान विशेष की विवक्षा जोड़नी होगी।
उपर्युक्त उदाहरण स्याद्वाद का बोध कराने में सहायक है। एक वस्तु को हम भिन्न-भिन्न दृष्टियों से देखेंगे तो उसके स्वरूप में अन्तर को समझने के लिए उन-उन दृष्टियों को समझना आवश्यक है और यही स्याद्वाद है। जैन दर्शन में इसका स्थान बहुत महत्त्वपूर्ण है।
स्याद्वाद के अनुसार जो एक पदार्थ को सर्वथा जानता है वह सभी पदार्थों को सर्वथा जानता है। जो सर्व पदार्थों को सर्वथा जानता है वह एक पदार्थ को भी सर्वथा जानता है -
"एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वे भावाः सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः एको भावः
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सर्वथा तेन दृष्टाः ।
सर्वथा तेन दृष्टः || ”
अर्थात् सभी पदार्थों को उनके सभी रूपान्तरों सहित जानने वाला सर्वज्ञ ही एक पदार्थ को पूर्ण रूप से जान सकता है। सामान्य व्यक्ति एक भी पदार्थ को पूरा नहीं जान सकता। ऐसी अवस्था में अमुक व्यक्ति ने अमुक बात मिथ्या कही, ऐसा कहने का हमें कोई अधिकार नहीं है।
अनेकान्तवाद की इस विशिष्टता को हृदयंगम करके ही जैन- दार्शनिकों ने उसे अपने विचार का मूलाधार बनाया है। वस्तुतः वह समस्त दार्शनिकों का जीवन है, प्राण है। जैनाचार्यों ने अपनी समन्वयात्मक उदार भावना का परिचय देते हुए कहा हैं
एकान्त वस्तुगत धर्म नहीं, किन्तु बुद्धिगत कल्पना है। जब बुद्धि शुद्ध होती है तो एकान्त का नामोनिशान नहीं रहता । दार्शनिकों की भी समस्त दृष्टियां अनेकान्त दृष्टि में उसी प्रकार विलीन हो जाती हैं जैसे विभिन्न दिशाओं से आने वाली सरिताएं सागर में एकाकार हो जाती हैं।
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उपाध्याय यशोविजयजी के अनुसार "सच्चा अनेकान्तवादी किसी भी दर्शन से द्वेष नहीं कर सकता। वह एकनयात्मक दर्शनों को इस प्रकार वात्सल्य की दृष्टि से देखता है जैसे कोई पिता अपने पुत्रों का देखता है । अनेकान्तवादी न किसी को न्यून और न किसी को अधिक समझता है - उसका सबके प्रति समभाव होता है। वास्तव में सच्चा शास्त्रज्ञ कहलाने का अधिकारी वही है जो अनेकान्तवाद का अवलम्बन लेकर समस्त दर्शनों पर समभाव रखता हो । मध्यस्थभाव रहने पर शास्त्र के एक पद का ज्ञान भी सफल है, अन्यथा कोटि-कोटि शास्त्रों को पढ़ लेने पर भी कोई लाभ नहीं होता । ९
हरिभद्रसूरि ने लिखा है - " आग्रहशील व्यक्ति युक्तियों को उसी जगह
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