Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
332
Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
प्रस्तुत किया है। उन्होंने बारह मास, बारह राशियों, दो अयन, छ: ऋतु और सात वार-प्रत्येक के साथ मन के संघर्ष की चर्चा की है। मैं यह सारी चर्चा इसलिए कर रहा हूं कि मानसिक शान्ति के प्रश्न पर सोचने वाले लोगों को एक ही दृष्टिकोण से नहीं सोचना चाहिए। मन की शान्ति अनेक व्यक्तियों में मिलती है तो अशान्ति के अनेक कारण होते हैं और उन अनेक कारणों के लिए एक ही समाधान प्रर्याप्त नहीं होता। किसकी किस प्रकार की समस्या है, जब तक इसका विश्लेषण नहीं कर लिया जायेगा और इसका सम्यक् बोध नहीं होगा, तब तक दिया हुआ समाधान सम्यक् नहीं होगा।
हमारे शरीर में सत्तर-अस्सी प्रतिशत जल है। पानी ही पानी है। पानी का चन्द्रमा के साथ सम्बन्ध है । हमारे मन और शरीर का भी चन्द्रमा के साथ सम्बन्ध है। केवल समुद्र में ही ज्वार-भाटा नहीं आता, मन में भी आता रहता है। बहुत अन्वेषणों के बाद यह निष्कर्ष निकाला गया कि तनाव, अपराध, हत्याएं ये सारे पूर्णिमा और अमावास्या के दिन ज्यादा होते हैं। दुर्घटनाएं भी चन्द्रमा के दिन अर्थात् पूर्णिमा को ज्यादा होती हैं। चन्द्रमा की तरह दूसरे ग्रहों का भी मनुष्य पर प्रभाव पड़ता है। कालचक्र और सौरमंडल से हमारा भाव और मन जुड़ा हुआ है। इनसे हम प्रभावित होते हैं। इसलिए इन दिनों में विशेष अनुष्ठानों का विधान किया गया कि अष्टमी, चतुर्दशी, पूर्णमासी, अमावस्या को विशेष तप-जप, दान-पुण्य किए जांय जिससे कि मानसिक विक्षिप्तता के प्रभावों से बचा जा सके। यह एक मुख्य हेतु था।
आजकल चिकित्सा की एक शाखा 'मनोचिकित्सा' विस्तार पा रही है। किन्तु मन की बीमारियों की एक शाखा तो नहीं है। वटवृक्ष तो शतशाखी है। सैकड़ोंहजारों शाखाएं हो सकती हैं। तब एक शाखा से कैसे-समाधान होगा? और समाधान भी कैसे होगा क्योंकि जो समाधान देने वाला है वह स्वयं समाधान प्राप्त नहीं है। हमारा अनुभव है और अनेक लोगों का अनुभव है कि जो मन:चिकित्सक है, वह स्वयं समाहित नहीं है, अपने आपमें उलझा हुआ है, अपने आपमें उतना ही तनावग्रस्त है किन्तु वह दूसरों को चिकित्सा करता चला जा रहा है । स्वयं समाहित नहीं, स्वयं की चिकित्सा नहीं और दूसरों का इलाज कर रहा है। बड़ी विचित्र बात है और यही आज के जीवन की विसंगति है। आदमी इतना विसंगति पूर्ण जीवन जी रहा है, जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती । उसका विवेक प्रस्फुटित नहीं होता कि वह क्या कर रहा है? वह अपने आचरण को भी नही समझ पाता ।
छोटा सा एक गांव। पचास घरों की बस्ती। जहाँ कोई पढ़ा-लिखा नहीं था। एक दिन एक आदमी पत्र लेकर नगर में गया । एक पढ़े-लिखे व्यक्ति के पास जाकर बोला-भाई साहब । मेरी पत्नी का पत्र आया है, कृपया पढ़कर सुना दीजिए। वह पढ़ने लगा। ग्रामीण सुन रहा था। सुनते-सुनते वह अचानक उठा और पढ़नेवाले व्यक्ति के
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org