Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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मन की शान्ति-अनेकान्त दृष्टि से
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अनन्त आनंद, और अनन्त शक्ति) से हम अनजान हैं। वैदिक साहित्य में सत्, चित्त्
और आनंद बहुत प्रसिद्ध है। सिद्धान्त रूप में जानते हैं कि हमारे भीतर चार अनन्त हैं किन्तु उनका साक्षात्कार कैसे हो? उस प्रक्रिया से आम जनता अनभिज्ञ नहीं है। जब आदमी अपनी शक्ति से अपरिचित है तो अपने आपको कैसे पहचान सकता है और कैसे दूसरे को अवबोध करा सकता हैं?
अध्यात्म के आचार्यों ने मनुष्य के मन की गहराइयों में जाकर झांका, उस अनंत चतुष्टयी में डुबकियां लगाकर जिन मूल्यों की प्रतिष्ठा की, जिन तथ्यों का प्रतिपादन किया और मनुष्य के व्यक्तित्व का चित्र उभारा यदि वह हमारे सबके सामने होता तो शायद मन की शान्ति का प्रश्न (Tranquility), चित्त के आनंद का प्रश्न (Eternal Joy), समभाव की अनुभूति (Equanimity) और विवेक-प्रज्ञा (True Maturity)की प्राप्ति जटिल नहीं होती। उन्होंने व्यक्ति के लब्धिमन (अवचेतन मन- Subconscious Mind) को समझा, उस आलोक में देखा और परखा कि भाव शुद्धि के बिना मन की शान्ति का प्रश्न कभी समाहित नहीं हो सकता। एक धारा हमारे भीतर है- भाव अशुद्धि की और दूसरी धारा प्रवहमान है- भाव शुद्धि की । जबजब हम भाव की अशुद्धि की धारा से जुड़ते हैं (मोह, काम, क्रोध, मान, माया, लोभ आदि) मन की समस्याए उलझ जाती हैं। वह पागल हो जाता है। एक बात को पकड़ लेता है, एक रट लग गयी, एक धुन मच गयी, पागल हो गया। यह सारा एकांगी दृष्टिकोण का प्रतिफल है और जब-जब हम अपनी भाव-शुद्धि की धारा में जुड़ते हैं (क्षमा, समता, सरलता, नम्रता, निर्लोभता, सत्य, शौच आदि) सब कुछ ठीक हो जाता है। जो विचार का तांता तोड़ने की क्षमता रखता है और कोई अशुद्ध भवधारा आ जाती है तो जो उसे हटाना जानता है, वह सच्चा समझदार इन्सान होता है। अशुद्ध भाव की धारा और वह समझदारी की धारा दोनों सटी हुई बह रही हैं। अब किस धारा में आदमी कब चला जाए, कहा नहीं जा सकता है।
____ आज के शरीरशास्त्री बतलाते हैं कि हमारे मस्तिष्क में दो ऐसी ग्रंथियाँ हैं, एक हर्ष की और एक है शोक की। दोनों सटी हुई हैं। हर्ष की ग्रन्थि उद्घाटित हो जाए तो हर घटना में व्यक्ति सुख का अनुभव करे। यदि शोक वाली ग्रन्थि खुल जाए तो फिर चाहे कितना ही भौतिक सुख-संपत्ति हो, दु:ख का अन्त होने वाला नहीं है। पर खतरा यही है कि एक को खोलते समय दूसरी खुल जाए तो फिर सारा चौपट हो जाए। सुख और दुःख की धाराएं समान्तर चल रही हैं। थोड़ा सा पैर इधर से उधर पड़ा, बस खतरा तैयार है। इसी बिन्दु पर जागरूकता की जरूरत है। आदमी निरन्तर सावधान रहे। किसी भी अवसर पर प्रमाद मत करो। अंतस्राव ग्रंथियां और भावधारा आहार से प्रभावित होते हैं। शद्ध सात्विक अन्नाहार, फलाहार, गौदुग्धाहार से
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