Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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अनेकान्तवाद का व्यावहारिक जीवन में प्रयोग
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तर्क दूसरों को सहज स्वीकार्य नहीं होगा क्योंकि कोई भी व्यक्ति अपने को हमसे कम ज्ञानी मानने को एकाएक तैयार नहीं होगा। इसमें केवल हमारी प्रतिष्ठा ही नहीं साथ ही उसकी अप्रतिष्ठा भी निहित है। अत: तर्क देने में वाचक का अभिप्राय महत्त्वपूर्ण होता है। यदि हम किसी वस्तु को या व्यक्ति को सही-सही जानना चाहते हैं तो यह आवश्यक है कि हम अपने पूर्वाग्रहों से ही न बधे रहें। ज्ञान का भण्डार असीम है, अनन्त है और हमारी स्वयं की जानकारी बहुत सीमित। हमें दूसरों की जानकारी का लाभ लेना उचित है।
किसी भी वस्तु के विभिन्न स्वरूप होते हैं, वह विभिन्न धर्मा होती है। जैसे उदाहरण के लिए कोई की है, वह कर्सी तो है ही, उसमें लकड़ी भी लगी है, लोहे की कील भी लगी है, नायलान के धागे की या बेंत की बनी हुई है, बढ़िया पालिश भी की हुई है और उस पर मखमल लगी गद्दी भी रखी हुई है। वह इन सबका समुच्चय है, मात्र लकड़ी की कुर्सी नहीं । फिर यह भी देखना है कि उसपर बैठने वाला, कौन है? जो उस कुर्सी पर बैठता है, कुर्सी प्राय: उसी के नाम से जानी जाती है, जबकि वह व्यक्ति स्वयं कुर्सी नहीं होता।
इसी प्रकार संसार में, समाज में, परिवार में किसी एक व्यक्ति के ही भिन्नभिन्न व्यक्तियों से भिन्न-भिन्न सम्बन्ध होते हैं। किसी एक सम्बन्ध को लेकर उसके पूर्ण व्यक्तित्व का बोध होने का दावा करना कहां तक संगत होगा? वह व्यक्ति एक ही समय में पुत्र भी है, भाई भी है, पति भी है, पिता भी है, चाचा-चाऊ, फूफा, मामामौसा-जीजा-साला-मित्र-अफसर-मातहत आदि सब कुछ है, किन्तु सबके लिए सब कुछ नहीं है। माता-पिता की दृष्टि में पुत्र, भाई-बहनों की दृष्टि में भाई, पत्नी की दृष्टि में पति, सन्तान की दृष्टि में पिता, भतीजे-भतीजियों की दृष्टि में चाचा या ताऊ सालेसालियों की दृष्टि में जीजा और अपने जीजा-बहनोई की दृष्टि में स्वयं साला, साले के बच्चों के लिए फूफा, बहन के बच्चों के लिए मामा, साली के बच्चों के लिये मौसा, माहतों की दृष्टि में अफसर और अपने अफसरों की दृष्टि में स्वयं मातहत और देशवासियों की दृष्टि में मात्र नागरिक होता है। यदि व्यापार करता है तो अपना माल बेचते समय व्यापारी और दूसरों का माल खरीदते समय खरीददार होता है। इस प्रकार प्राय: हर व्यक्ति एक साथ कभी-कभी परस्पर विरोधी सम्बन्ध ओढ़े रहता है। हम यदि किसी व्यक्ति को एक ही, या कुछ विशिष्ट रूपों में ही जानते हैं तो यह आवश्यक नहीं है कि हम उसे सब प्रकार से जानते ही हों।।
जो कुछ हम देखते हैं, सुनते हैं या पढ़ते हैं, क्या हम दावे के साथ कह सकते हैं कि वह सब सत्य ही है? क्या हमारी दृष्टि धोखा नहीं खा सकती है? देखकर जो हम समझ रहे हैं, अनुमान लगा रहे हैं, क्या वह मिथ्या नहीं हो सकता? ऐसी तो
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