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सप्तभंगी:बहुमूल्यात्मक तर्कशास्त्र के सन्दर्भ में
डॉ० बी० आर० यादव
जैन दर्शन की मान्यता है कि वस्तुएं अनन्त धर्मात्मक हैं। अनेकान्तवाद एवं स्याद्वाद के सिद्धान्त वस्तु की अनन्त धर्मात्मकता को स्वीकार कर एक ही वस्तु में भिन्न-भिन्न दृष्टिकोणों से नित्यत्व - अनित्यत्व, एकत्व - अनेकत्व आदि विरोधी धर्म युगलों का समन्वय करते हैं। इसके साथ ही यह बात स्पष्ट है कि एक साधारण मानव के लिए अनन्त धर्मात्मक वस्तु के सम्पूर्ण स्वरूप को जानकर उसका यथोचित शब्दों में वर्णन कर पाना संभव नहीं है, क्योंकि उसकी ज्ञान-शक्ति और शब्द - सामर्थ्य दोनों ही सीमित होती है। इसलिए अनन्त धर्मात्मक एवं अनेकान्तिक वस्तु के विवक्षित कथ्य धर्म को अविवक्षित शेष धर्मों से पृथक करना अनिवार्य हो जाता है। ऐसी अवस्था में यह आवश्यक है कि उसके यथार्थ ज्ञान एवं कथन के लिए किसी ऐसी विधा या दृष्टि का उपयोग किया जाय, जिससे प्रकथन में विवक्षित धर्म का प्रतिपादन तो हो किन्तु उसमें अवस्थित अविवक्षित शेष धर्मों की उपेक्षा न हो । मात्र इसी लक्ष्य को लेकर जैन आचार्यों ने अपनी प्रमाण - मीमांसा में सप्तभंगी की योजना की ।
जैन आचार्यों की दृष्टि में सप्तभंगी एक ऐसा सिद्धान्त है जो वस्तु का आंशिक किन्तु यथार्थ कथन करने में समर्थ होता है, क्योंकि उसके प्रत्येक भंग में प्रयुक्त 'स्यात्' शब्द एक ऐसा प्रहरी है, जो प्रकथन की मर्यादा को संतुलित रखता है। वह संदेह एवं अनिश्चय का निरास कर वस्तु के किसी रूप धर्म विशेष के सम्बन्ध में एक निश्चित स्थिति की अभिव्यक्ति करता है कि वस्तु अमुक दृष्टि से अमुक धर्मवाली है। वह उस विवक्षित धर्म को अविवक्षित धर्मों से पृथक कर यह स्पष्ट करता है कि वस्तु में उन अविविक्षित धर्मों की भी अवस्थिति है। स्यात् पद इस बातपर बल देता है कि हमारे प्रकथन में वस्तु के अविवक्षित धर्मों की पूर्णतया उपेक्षा न हो जाय । सामान्य रूप से हमारी भाषा अस्ति और नास्ति की सीमाओं से बँधी हुई है। हमारा कोई प्रकथन या तो अस्तिवाचक होता है या नास्तिवाचक । यदि हम इस सीमा
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