Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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समन्वय, शान्ति और समत्व योग का आधार अनेकान्तवाद
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निर्मूल है।
दूसरा तर्क आचार्यजी ने यह दिया है कि सबको सब स्वरूप मान लेने से एक शब्द से ही सब अर्थों का बोध हो जायेगा। साधारणत: अनेकान्त दर्शन में सबको सब स्वरूप नहीं माना गया है। यदि सबको सब मान लिया जाय तो पर या अन्य के अभाव से वस्तु भावाभावात्मक नहीं हो पायेगी और वस्तु की प्रतिनियत स्वभावता के लिये आवश्यक अन्य व्यावृत्ति रूप स्वभाव वस्तु का नहीं बन पायेगा। यदि घट, पटादि रूप हो जाय तो अन्य के अभाव हो जाने से अन्यव्यावृत्ति न हो पायेगी। फलस्वरूप वस्तु की प्रतिनियत स्वभावता नहीं रहेगी। अतः प्रत्यक्ष बाध आयेगा। अनेकान्त का मूल सिद्धान्त है वस्तु को भावाभावात्मक आदि मानना।” १३ इस सिद्धान्त को भी क्षति पहुंचेगी। अत: सबको सब स्वरूप नहीं माना जा सकता ।
महर्षि बादरायण ने अपने ब्रह्मसूत्र में सामान्य रूप से अनेकान्त तत्त्व में दूषण देते हुए कहा है- “नै कस्मिन्न संभवात्'१४ अर्थात् एक वस्तु में अनेक धर्म नहीं हो सकते हैं।
शंकराचार्य ने ब्रह्मसूत्र पर लिखित अपने शांकरभाष्य में उक्त सूत्र की व्याख्या करते समय स्याद्वाद के सप्तभंगी नय में सूत्र निर्दिष्ट विरोध के अलावा संशयदोष का भी संकेत किया है। सूत्र पर भाष्य लिखते हुए उन्होंने कहा है कि- “एक वस्तु में परस्पर विरोधी अनेक धर्म नहीं हो सकते हैं। जैसे कि एक ही वस्तु शीत और उष्ण नहीं हो सकती है। जो सात पदार्थ या पंचास्तिकाय बताये हैं, उनका वर्णन जिस रूपमें है, वे उस रूप में भी होंगे और अन्य रूप में भी। यानी एक भी रूप से उनका निश्चय नहीं होने से संशय दूषण आता है। प्रमाता, प्रमिति आदि के स्वरूप में भी इसी तरह निश्चयात्मकता न होने से तीर्थंकर किसे उपदेश देंगे और श्रोता कैसे प्रवृत्ति करेंगे? पांच अस्तिकायों की पांच संख्या है भी और नहीं भी, यह तो बड़ी विचित्र बात है। एक तरफ अवक्तव्य भी कहते हैं, फिर उसे अवक्तव्य शब्द से कहते भी जाते हैं। यह तो स्पष्ट विरोध है कि - "स्वर्ग और मोक्ष है भी और नहीं भी, नित्य भी है और अनित्य भी।” तात्पर्य यह कि एक वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मों का होना संभव ही नहीं है। अत: आर्हत् मत का स्याद्वाद सिद्धान्त असंगत है।''१५ ।।
शंकराचार्य के उक्त कथन के बारे में स्याद्वाद का दृष्टिकोण प्रस्तुत करने के पूर्व यहां उन विद्वानों का अभिमत देना समीचीन होगा जिन्होंने शांकरभाष्य और स्याद्वाद के बारे में तुलनात्मक दृष्टि से चिन्तन करके अपने विचार व्यक्त किये हैं।
प्रो० बलदेव उपाध्याय के अनुसार१६ “स्याद्वाद संशयवाद का रूपान्तर नहीं
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