Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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समन्वय, शान्ति और समत्व योग का आधार अनेकान्तवाद
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मानता, किन्तु वह वस्तु के समग्र स्वरूप का आकलन करने का प्रयास करता है। उसकी दृष्टि वस्तु के किसी आंशिक सौन्दर्य से चकित हो पथभ्रष्ट नहीं होती, किन्तु उसके सम्पूर्ण स्वरूप को देखने के लिए आकुल रहती है । इस वृत्ति का प्रतिफल ही अनेकान्त का उद्भव है। अनेकान्त का अर्थ
अब 'अनेकान्त' शब्द पर विचार करें। 'अनेकान्त' शब्द दो शब्दों से मिलकर बना है, “अनेक” और “अन्त'। अन्त शब्द की व्युत्पत्ति रत्नाकरावतारिका में इस प्रकार की गई है -
अम्यते३ गम्यते- निश्चीयते इति अन्तः धर्म ।
न एकः अनेकः अनेकश्चासो अनतश्च इति अनेकान्तः।। 'वस्तु में अनेक धर्मों के समूह को मानना अनेकान्त है'। अनेकान्त को स्याद्वाद भी कहा जाता है। “स्यात्' अनेकान्त द्योतक अव्यय है। वास्तव में अनेकान्त क्या है? जो वस्तु तत्स्वरूप है वही 'अतत्' स्वरूप भी है। जो वस्तु एक है वही अनेक भी है,जो सत् है वही असत् भी है तथा जो वस्तु नित्य है वही अनित्य भी है। इस प्रकार एक ही वस्तु के वस्तुत्व के कारणभूत परस्पर विरोधी धर्मयुगलों का प्रकाशन अनेकान्त है, और भी देखिए - "सद्सन्नित्यानित्यादि सर्वथेकान्त प्रतिक्षेपलक्षणोऽनेकान्तः ।
अष्टशती, कारिका १०३ वस्तु सर्वथा सत् ही है अथवा असत् ही है, नित्य ही है, अथवा अनित्य ही है, इस प्रकार सर्वथा एकान्त के निराकरण करने का नाम अनेकान्त है। अत: अनेकान्त में परस्पर विरोधी प्रतीत होने वाले दो या दो से अधिक धर्म रहते हैं। अनेकान्तवाद और स्याद्वाद
____ अनेकान्तवाद नामक सिक्के का दूसरा पहलू स्याद्वाद है। नित्य और अनित्य आदि अनेक धर्मों से युक्त वस्तु के अभ्युपगम को स्याद्वाद कहते हैं। इस प्रकार स्याद्वाद और अनेकान्तवाद दोनों पर्यायवादी शब्द हुए।
"स्यात' विधिपरक अव्यय है। एक वाक्य में जब वस्तु के अनेक धर्मों का कथन नहीं किया जा सकता, तब उसके निर्वचन व्यवहार को अबाधित करने के लिए "स्यात्' पद की योजना सहायक सिद्ध होती है जैसे- यह मणि है, प्रकाशमान है, शुक्लवर्ण, बहुमूल्य है, आदि। मणिगत, इन स्वधर्मों को भी युगपत् (एक साथ) कहना शक्य नहीं। “स्यात्' जिसका अर्थ कथंचित् (किसी एक अपेक्षा- दृष्टिकोण से)
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