Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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Multi-dimensional Application of Anekäntaväda
ही ऐसी है कि उसका अनेक दृष्टियों से विचार किया जा सकता है और अनेक दृष्टियों से विचार करने पर ही वस्तु के यथार्थ ज्ञान या पूर्णज्ञान की ओर अग्रसर हुआ जा सकता है । इस दृष्टि का नाम ही अनेकान्तवाद है।
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टाल्सटाय ने कहीं कहा है कि जब मैं जवान था तो मैं सोचता था कि कंसिस्टेंट विचारक ही असली विचारक है, जो बिल्कुल सुसंगत बात कहता है। एक चीज कहता है तो उसके विरोध में कभी दूसरी बात नहीं कहता। लेकिन जब मैं बूढ़ा हो गया हूँ तो मैं जानता हूँ कि जो सुसंगत है, उसने विचार ही नहीं किया। क्योंकि जिन्दगी अनेक विरोधाभासों (Contradictions) से भरी है। जो विचार करेगा, उसके विचार में भी (Contradictions) आ जाएंगे- आ ही जाएंगे। वह ऐसा सत्य नहीं कह सकता, जो एकांकी, पूर्ण और दावेदार हो। उसके प्रत्येक सत्य की घोषणा में भी झिझक होगी, लेकिन झिझक उसके अज्ञान की सूचक बन जाएगी, जबकि झिझक उसके ज्ञान की सूचक है। क्योंकि अज्ञानी जितनी तीव्रता से दावा करता है, उतना ज्ञानी के लिए करना बहुत मुश्किल है ।
महावीर के अनेकान्त का यही अर्थ है कि कोई दृष्टि पूरी नहीं है, कोई दृष्टि विरोधी नहीं है, सब दृष्टियाँ सहयोगी हैं और सब दृष्टियां किसी बड़े सत्य में समाहित हो जाती हैं और जो बड़े सत्य को जानता है, जो विराट सत्य को जानता है- न वह किसी के पक्ष में होगा, न वह किसी के विपक्ष में होगा । ऐसा व्यक्ति ही निष्पक्ष हो सकता है। सिर्फ अनेकान्त की जिसकी दृष्टि हो, वही निष्पक्ष हो सकता है - समत्व प्राप्त कर सकता है।
किसी परम्परागत मान्यता के सम्मुख नतमस्तक न होकर स्वतंत्र दृष्टि से वस्तु को देखने की तथा उसके सम्बन्ध में अन्यान्य मतवादों के मर्म को निष्पक्ष भाव से समझने और उन्हें उचित मान्यता प्रदान करने की प्रवृत्ति ही अनेकान्त की जन्मस्थली है । विभिन्न दर्शनों से दृष्टि सत्यों में एक रूपता लाने, उनमें समन्वय एवं सामंजस्य स्थापित करने तथा दुराग्रह एवं अभिनिविष्ट वृत्ति को छोड़कर निर्मल और तटस्थ भाव से सत्य की खोज करने के प्रयत्न ही अनेकान्त के उद्भव के हेतु हैं । यहाँ आचार्य हरिभद्र का श्लोक ध्यान देने योग्य है
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"आग्रहीवत निनीषति युक्तिं तत्र यत्र तस्य मतिर्निविष्टा । निष्पक्षपातस्य तु युक्तिर्यत्र तत्रतस्य मतिरेति निवेशम् ॥१
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अनाग्रही एवं समभाव वाला व्यक्ति नितान्त निष्पक्ष दृष्टि को देखने का प्रयत्न करता है। वह वस्तु के कतिपय अंशों को ही देखकर अपने को कृतकृत्य नहीं
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