Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
होता है, इन अनेक धर्मों की अभिव्यक्ति में साहाय्यकारी होता है। स्यात् यह प्रकाशमान् है, स्यात् यह बहुमूल्य है।
पदार्थ के साथ इस स्यात् पद के सात भंग हैं। इन भंगों को “सप्तभंग' कहते हैं। स्यादस्ति, स्यानास्ति, स्याद्अवक्तव्यम् इत्यादि आपेक्षिक भंगों द्वारा पदार्थ स्थित अनेकान्त को स्फुट करना सप्तभंग का विषय है । इस अनेकान्त दर्शन से मनुष्य में सद्विचार का आविर्भाव होता है और पूर्वाग्रह अथवा एकान्त हठवाद का अन्त हो जाता है । अनेकान्त दृष्टिमान् यह विचारता है कि पदार्थ में एक मात्र वही गुण धर्म नहीं है, जिसे मैं जानता हूँ, अपितु दूसरा व्यक्ति उसमें जिस अपर गुण की स्थिति बता रहा है, वह भी उसमें है। यह विचारों की प्रांजलता, दर्शन की व्यापकता तथा सहिष्णुता को प्रसारित कर समन्वय मार्ग को प्रशस्त करता है।
जैनधर्म ने अनेकान्त दृष्टि से विश्व को देखा और स्याद्वाद की भाषा में उसकी व्याख्या की, इसलिए वह न अद्वैतवादी बना और न द्वैतवादी । उसकी धारा स्वतंत्र रही, फिर भी उसने दोनों कोणों का स्पर्श किया। अनेकान्त दृष्टि अनन्त नयों की समष्टि है। उसके अनुसार कोई भी एक नय पूर्ण सत्य नहीं है, और कोई भी नय असत्य नहीं है। वे सापेक्ष होकर सत्य होते हैं और निरपेक्ष होकर असत्य हो जाते हैं। हम संग्रहनय की दृष्टि से देखते हैं तब सम्पूर्ण विश्व अस्तित्व के महास्कंध में अवस्थित होकर एक हो जाता है। एक नय की सीमा में द्वैत नहीं होता, चेतन और अचेतन का भेद भी नहीं होता। द्रव्य और गुण तथा शाश्वत् और परिवर्तन का भेद नहीं होता । सर्वत्र अद्वैत ही अद्वैत। यह विश्व को देखने का एक नय है। हम व्यवहारनय से देखते हैं तब विश्व अनेक खण्डों में दिखाई देता है। इस नय की सीमा में चेतन भी है, अचेतन भी है। द्रव्य भी है और गुण भी है। शाश्वत भी है और परिवर्तनशील भी है। सत्य की व्याख्या किसी एम नय से नहीं हो सकती। वह अनन्त धर्मा है। उसकी व्याख्या अनन्त नयों से ही हो सकती है। हम कुछ नयों को ही जान पाते हैं, फलत: सत्य के कुछ धर्मों की ही व्याख्या कर पाते हैं। कोई भी शास्त्र सम्पूर्ण सत्य की व्याख्या नहीं कर पाता और कोई भी व्यक्ति शास्त्रीय आधार पर सम्पूर्ण सत्य को साक्षात् नहीं जान पाता। यह दर्शनों का अन्तर और मतवादों का भेद हमारे ज्ञान और प्रतिपादन शक्ति की अपूर्णता के कारण ही चल रहा है। यह भेद सत्य को विभक्त किए हए है- जितने दर्शन उतने ही सत्य के रूप बन गए हैं। जैन दर्शन का अध्ययन हमें सत्य की दिशा में आगे ले जाता है और दर्शन के आकाश में छाए हुए कहासे में देखने की क्षमता देता है । द्रव्य के अनन्त धर्म हैं । कोई दर्शन किसी एक धर्म को मुख्य मानकर उसका प्रतिपादन करता है तो दूसरा दर्शन किसी दूसरे धर्म को मुख्य मानकर उसका प्रतिपादन करता है। दोनों की पृष्ठभूमि में एक ही द्रव्य है, किन्तु
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