________________
Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
जाता है अथवा उसकी असत्यता का ही प्रचार नहीं किया जाता है। वहाँ पर तो सत्यता और असत्यता दोनों की संभावना बताकर विचारों का क्षेत्र और बृहत् कर दिया जाता है। किसी वस्तु को अगर हम एक दृष्टिकोण से असत्य कहते हैं तो दूसरे दृष्टिकोण से वह सत्य भी है। वहाँ तो सापेक्षता (Relativity) का संकेत मिलता है। इसलिये जैन दर्शन को संशयवादी कैसे कह सकते हैं ? दूसरे शब्दों में स्याद्वाद के सिद्धान्त को कुछ लोग संदेहवाद समझते हैं। परन्तु स्याद्वाद को संदेहेवाद ( Scepticism) कहना भ्रामक है। संदेहवाद ज्ञान की संभावना में संदेह करता है। जैन इसके विपरीत ज्ञान की संभावना की सत्यता में विश्वास करता है । वह पूर्ण ज्ञान की संभावना ४९ पर भी विश्वास करता है। साधारण ज्ञान की सम्भावना पर भी वह संदेह नहीं रखता। अतः स्याद्वाद को संदेहवाद नहीं कहा जा सकता। जैनों का स्याद्वाद ज्ञान की सापेक्षता का सिद्धांत है। जैनों के अनुसार ज्ञान निर्भर करता है - स्थान, काल और दृष्टिकोण पर । इसलिये यह सापेक्षवाद है। जैनों का सापेक्षवाद वस्तुवादी है, क्योंकि वह मानता है कि वस्तुओं के अनंत गुण देखने वाले पर निर्भर नहीं करते, बल्कि उनकी स्वतंत्र सत्ता है। जैन दर्शन वस्तुओं की वास्तविकता में विश्वास करता है । "५०
298
इसी प्रकार कुछ आधुनिक वेदांती भी स्याद्वाद की आलोचना करते हैं। डॉ० राधाकृष्णन् ने बताया है कि स्याद्वाद हमें आपेक्षिक सत्य, अर्धसत्य का ही ज्ञान प्राप्त कराता है तथा इन्हीं अर्धसत्यों को पूर्ण सत्य मान लेने की प्रेरणा देता है । - "The theory of relativity cannot be logically sustained without the hypothesis of an absolute. The fact that we are conscious of our relativity means that we have to reach out to a fuller conception. It is from that higher absolute point of view that the lower relative ones can be explained "1 इसी प्रकार डॉ० सी० डी० शर्मा कहते हैं कि इन नयों में विरोध के परिहार की शक्ति तो अवश्य है, परंतु इन नयों में सामंजस्य नहीं । ये सात नय आपेक्षिक सत्य हैं जो सात बिखरे हुए पुष्प के समान प्रतीत होते हैं। माला बनाने के लिए केवल पुष्प ही नहीं वरन पुष्पों को एक धागे में गुंथने की आवश्यकता है। इसी प्रकार इन आपेक्षिक नयों के लिये एक निरपेक्ष तत्त्व (Absolute) की आवश्यकता है जिससे इनमें पारस्परिक सामंजस्य की व्याख्या हो सके। ( " But the difficulty is that the, nayas have not been woven together. The absolute is the only thread which can weave them together and it has been wantonly thrown away by Jainism. It is forgotten that a mere pooling together of the nayas by no means removes their contradictions. For this a proper synthesis is required which will unify all the nayas. In the
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org