Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
ज्वलंत उदाहरण है। जैन दर्शन वस्तुपरक है लेकिन पाश्चात्य व्यवहारवाद आत्मपरक है। मनुष्य की अपनी इच्छाएँ अभिरुचियों के अतिरिक्त अन्य किसी भी तत्त्व के आधार पर ज्ञानमीमांसा की कल्पना नहीं की जा सकती।
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संक्षेप में जैन दार्शनिकों के अनेकांतवाद और पाश्चात्य व्यावहारिकतावाद इन दोनों का उद्देश्य मुख्यतः सत्य के संबंध में यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर अपने व्यावहारिक जीवन में सुधार और परिवर्तन लाना और उसके अनुकूल कार्य करना है।
भारतीय जीवन दृष्टि में सापेक्षवाद
भारतीय दर्शन के प्रायः सभी संप्रदायों ने किसी न किसी रूप में समन्वय और सह अस्तित्व की भावना का आदर किया है किन्तु साथ ही साथ भारतीय दर्शन के जैनेतर आचार्यों ने अनेकांतवाद के मंतव्य का तर्क और युक्तियों के आधार पर खण्डन किया है। इसके मानने वालों पर नाना प्रकार के व्यंग्य भी किये गये हैं जिनमें शंकराचार्य, धर्मकीर्ति तथा वाचस्पति मिश्र आदि उल्लेखनीय हैं। इधर जैन विद्वानों ने प्रतिपादित पूर्वपक्ष के आक्षेपों का उत्तर दिया है तथा अनेकांतवाद की युक्तिसंगत व्याख्या करने का प्रयास किया है। हरिभद्र सूरि के अनेकान्तजयपताका आदि ग्रंथों में यह प्रवृत्ति स्पष्टतः लक्षित होती है । अनेकांतवाद के विषय में एक सामान्य आक्षेप यह है कि एक ही वस्तु में विरुद्ध धर्म नहीं हो सकते। उदाहरणार्थ, एक ही वस्तु युगपत सत् और असत् कैसे हो सकती है ? इसका सामाधान है - दृष्टि-भेद से, जैसे सांख्य की दृष्टि में कुंडल उत्पत्ति से पूर्व अपने कारण में सत् है ( सत्कार्यवाद ), किन्तु न्याय वैशेषिक की दृष्टि में कुंडल उत्पत्ति से पूर्व असत् है (असत्कार्यवाद) | अनेकांत दृष्टि के अनुसार इन दोनों मतों में सत्यता है । दोनों परस्पर विरोधी नहीं है अपितु एक दूसरे के पूरक हैं, एक दूसरे की कमी को पूरा करते हैं। वस्तुतः कार्य और कारण ये दोनों एक दृष्टि से अभिन्न हैं और दूसरी दृष्टि से भिन्न हैं। जब हम दोनों को अभिन्न रूप में देखते हैं तो कुंडल को सुवर्ण से अभिन्न समझते हुए उत्पत्ति से पूर्व भी सुवर्ण में कुंडल को सत् कहने लगते हैं, अथवा सुवर्ण में कुंडल रचना की शक्ति है। इसी शक्ति की दृष्टि से कुंडल को उत्पति से पूर्व सत् कह दिया जाता है। दूसरी दृष्टि में सुवर्ण से कुंडल भिन्न है, यदि भिन्न न होता या पहले से ही सुवर्ण में कुंडल विद्यमान होता तो सुवर्णकार उसे बनाने के लिये प्रयत्न क्यों करता? अतः कहा जाता है कि कुंडल आदि कार्य सुवर्ण में असत् हैं। इस प्रकार दो विरुद्ध सत्व तथा असत्व युगपत् एक कुंडल में रहते हैं । दृष्टि भेद से सत् और असत् का समन्वय करने पर तत्त्व का यथार्थ बोध होता है । "
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स्याद्वाद पर आपत्ति प्रकट करते हुए कुछ विद्वान इसे लोक व्यवहार तक ही
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