Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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Multi-dimensional Application of Anekantavāda
गुणों एवं अनंत पर्यायों का सहवास है। वह अनेकांतरूप है। जैन दर्शन के अनुसार कोई भी पदार्थ एकांतरूप नहीं होता, पदार्थ मात्र ही अनेकांतरूप होता है। यही कारण है कि केवल एक दृष्टि से किये गये पदार्थ के निश्चय को जैन दर्शन अपूर्ण एवं एकान्तिक समझता है और यह ठीक भी प्रतीत होता है, क्योंकि जब पदार्थ का स्वरूप ही कुछ इस प्रकार का है कि उसमें अपेक्षित धर्म के अतिरिक्त अनेक प्रतिद्वन्द्वी परस्पर विरोधी धर्म भी सापेक्ष रूप से उपस्थित रहते हैं, और जिनका विरोध नहीं किया जा सकता, तब वस्तु के किसी धर्म के आधार पर उसका निश्चय करना एकांतवाद का ही समर्थन करना है। डॉ० मोहन लाल मेहता का भी कहना है कि "जो लोग एक धर्म का निषेध करके दूसरे धर्म का समर्थन करते हैं, वे एकांतवाद की चक्की में पिस जाते हैं । वस्तु कथंचित् भेदात्मक है, कथंचित् अभेदात्मक है, कथंचित् सत्कार्यवाद के अन्तर्गत है, कथंचित् असत्कार्यवाद के अन्तर्गत है, कथंचित् निर्वचनीय है, कथंचित् अनिर्वचनीय है, कथंचित् तर्कगम्य है, कथंचित् तर्क अगम्य है। प्रत्येक दृष्टि की एक मर्यादा है उसका उल्लंघन न करना ही सत्य के साथ न्याय करना है "३ यही कारण है कि वस्तुओं को न केवल अस्तिरूप कहा जा सकता है और न केवल नास्तिरूप ही, उनके विषय में सापेक्षिक कथन ही संभव है। यही सापेक्षिक कथन जैन दर्शन के अनुसार यथार्थ एवं सत्य है। इसी यथार्थता एवं सत्यता का उद्घाटन अनेकांतवाद करता है। अनेकांतवाद वस्तु की मर्यादा का उल्लंघन नहीं करता, वह उसकी रक्षा करता है। वस्तु में अवस्थित नित्य- अनित्य, एक-अनेक, सत् -असत् आदि परस्पर विरोधी धर्मों का समन्वय करता है । ४
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'अनेकांतवाद' का शाब्दिक अर्थ भी ऐसा ही कहता है। जैन दर्शन के अनुसार अनेकांतवाद शब्द में अनेक + अन्त+वाद इन तीन शब्दों का संयोग है। जिसमें “अनेक” का अर्थ है “एक से अधिक”, “अन्त” का अर्थ है "धर्म" या "गुण" और “वाद” का अर्थ है "प्रकटीकरण या प्रभावना" या " प्रतिपादन" । इस प्रकार अनेकांतवाद का अर्थ होगा “वस्तुओं की अनंतधर्मता को प्रकट करना अर्थात्, "विभिन्न अपेक्षाओं से एक ही वस्तु में अनेक धर्मों को स्वीकार करना" । अनेकांतवाद वस्तुओं की अनंतधर्मता के साथ-साथ उसकी अनैकांतिकता को भी सूचित करता है। श्री सुरेश मुनि का कथन है कि अनेकांतवाद विशेष तौर से विरोधी प्रतीत होने वाले धर्मों का ही प्रतिपादन करता है।' उनका कहना है कि "अनेक प्रकार की विशेषताओं के कारण ही प्रत्येक पदार्थ अनेकांतरूप (अनेके अन्ताः धर्माः यस्मिन् सः अनेकांत: ) में पाया जाता है जो (धर्म) विशेषताएँ परस्पर विरुद्ध प्रतीत होती हैं वे ही विशेषताएँ एक ही पदार्थ में सही तौर पर पायी जाती हैं। पदार्थ की इस अनेकरूपता (धर्मात्मकता) का प्रतिपादन करने वाला सिद्धांत अनेकांतवाद है। ""
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