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अनेकान्तवाद की उपयोगिता
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इसी बात को दार्शनिक परिभाषा में हेमचन्द्र ने इस प्रकार कहा है अनंत धर्मात्मकमेव तत्त्वम् ।
अर्थात् तत्त्व अनंतधर्म युक्त है। उन्होंने और स्पष्ट करते हुए कहा है कि दीपक से लगाकर व्योमपर्यंत प्रत्येक वस्तु का यही स्वभाव है । कोई भी पदार्थ स्यादवाद की मर्यादा का उल्लंघन नहीं कर सकता है -
“आदीपमाव्योमसमस्वभावं स्याद्वाद-मुद्रानति मेदि वस्तु ।”
उपनिषद् में एक शिष्य ने गुरु से पूछा - "हे भगवान! ऐसी कौन सी वस्तु है जिसके ज्ञान से वस्तु मात्र का ज्ञान हो जाये ? “ऐसा ही एक प्रश्न पूछने वाले दूसरे विद्यार्थी श्वेतकेतु को उसके पिता आरुणि ने कहा कि मिट्टी के एक लौंदे को जान लेने से मिट्टी की बनी हुई सभी वस्तुओं का ज्ञान हो जाता है ।
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" एकेन मृत्पिंडेन विशालेन मृण्मयं विज्ञातं स्यात् ।
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जैन दर्शन ने यह बात तो बताई ही साथ ही साथ उससे फलित होने वाले एक उपसिद्धांत का भी निर्माण किया और स्याद्वाद का स्वरूप वर्णन करते हुए कहा कि जो एक पदार्थ को सर्वथा जानता है वह सभी पदार्थों को जानता है, जो सर्व पदार्थों को सर्वथा जानता है वह एक पदार्थ को भी सर्वथा जानता है ।
“एको भावः सर्वथा येन दृष्टः सर्वेभावा: सर्वथा तेन दृष्टाः सर्वे भावाः सर्वथा येन दृष्टाः एको भावः सर्वथा तेन - - दृष्टः ।।
अर्थात् सभी पदार्थों को उनके सभी रूपांतरों सहित जानने वाला सर्वज्ञ ही एक पदार्थ को पूर्णरूप से जान सकता है। सामान्य व्यक्ति एक भी पदार्थ को पूरा नहीं जान सकता। ऐसी अवस्था में अमुक व्यक्ति ने अमुक बात मिथ्या कही, ऐसा कहने का हमें कोई अधिकार नहीं। यह अधिकार तो सर्वज्ञ को ही है । स्याद्वाद का सुव्यवस्थित निरूपण जैन-दर्शन ने किया। जैन दर्शन की दृष्टि के अनुसार एक ही पदार्थ के विपरीत वर्णन अपनी-अपनी दृष्टि से सच्चे हैं अर्थात् प्रत्येक पदार्थ में "विरुद्धधर्माश्रयत्व” है ।
दूसरे शब्दों में जैन दर्शन का कथन है कि एक-एक दर्शन (विचार) नाना रूपिणी सत्ता के एक-एक अंश के विवेचन में अपना महत्त्व रखतें हैं। फिर भी उनमें आपस में किसी प्रकार के मतभेद के लिये स्थान नहीं है। सभी अंश अपेक्षा भेद से उसमें सदा विद्यमान हैं।
विश्व के सभी पदार्थों में चाहे वे चेतन हो या अचेतन अनंत धर्मों, अनंत
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