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Multi-dimensional Application of Anekāntavāda
का रूप ही स्याद्वाद है। वस्तुओं में स्थित अनंत धर्म स्याद्वाद के माध्यम से ही मुखरित होते हैं। इसलिए यह कहा जा सकता है कि अनेकांतवाद और स्याद्वाद में वाच्य-वाचक भाव संबंध है। अनेकांतवाद वाच्य और स्याद्वाद उसका वाचक है क्योंकि स्याद्वाद अनेकांतवाद की ही अभिव्यक्ति करता है और अनेकांतवाद स्याद्वाद के माध्यम से ही अभिव्यक्त हो सकता है।'' २९ श्री विजयमुनि जी शास्त्री ने भी लिखा है “अनेकांतवाद विचार प्रधान होता है और स्याद्वाद भाषा प्रधान होता है। दृष्टि जब तक विचार रूप है तब तक वह अनेकांत है और जब वह वाणी का चोगा पहनती है तब वह स्याद्वाद बन जाती है।'३०
__ अनेकांतवाद वस्तु को नाना धर्मात्मक बतलाकर ही चरितार्थ हो जाता है, पर नाना धर्मात्मक वस्तु हमारे लिये किस प्रकार उपयोगी हो सकती है यह बात स्याद्वाद बताता है। संक्षेप में कहा जा सकता है कि अनेकान्तवाद का फल विधानात्मक और स्याद्वाद का फल उपयोगात्मक है। यह भी कहा जा सकता है कि अनेकांतवाद का फल स्याद्वाद है। अनेकांतवाद की मान्यता ने ही स्याद्वाद की मान्यता को जन्म दिया है, कारण जहाँ नाना धर्मों का विधान नहीं है, वहाँ दृष्टि-भेद की कल्पना हो ही कैसे सकती है। “अनेकांतवाद" वक्ता से अधिक संबंध रखता है, कारण कि वक्ता की दृष्टि ही विधानात्मक रहती है, इसी प्रकार "स्याद्वाद' श्रोता से अधिक संबंध रखता है, क्योंकि उसकी दृष्टि हमेशा उपयोगात्मक रहा करती है। वक्ता अनेकांतवाद के द्वारा नाना-धर्म-विशिष्ट वस्तु का प्रतिपादन करता है और श्रोता "स्याद्वाद" के द्वारा उस वस्तु के केवल अपने लिये उपयोगी अंश को ही ग्रहण करता है।''३१
कछ जैन आचार्यों ने स्याद्वाद और अनेकांतवाद को एक ही बताया है। उन आचार्यों ने यह स्पष्ट किया है कि जो स्याद्वाद है, वही अनेकांतवाद है और जो अनेकांतवाद है, वही स्याद्वाद है। किसी सीमा तक स्याद्वाद को अनेकांतवाद का पर्यायवाची माना जा सकता है, क्योंकि स्याद्वाद से जिस वस्तु का कथन होता है वह अनेकान्तात्मक है। अतः स्याद्वाद उस अनेकांतात्मक अर्थ का सूचक है। इस प्रकार स्थूल दृष्टि से स्याद्वाद और अनेकान्तवाद की अभेदता सिद्ध होती है। स्याद्वादमंजरी में इस अभेदता के लिये कहा है - "स्यात्' अव्यय अनेकांत का द्योतक है, इसीलिए स्याद्वाद को अनेकांतवाद भी कहते हैं। '३२ ।।
यद्यपि स्थूलतः स्याद्वाद और अनेकांतवाद दोनों एक ही हैं, किन्तु सूक्ष्म दृष्टि से विचार करने पर उनमें कुछ अन्तर भी प्रतीत होता है। अनेकांत वस्तु के अनंत धर्मात्मक स्वरूप को बताता है और स्याद्वाद वस्तु के अनेकात्मक स्वरूप को अभिव्यक्त करते हुए एकान्तिक भाषा-दोष का परिमार्जन करता है। आचार्य श्री आनन्द ऋषि जी महाराज ने लिखा है - यद्यपि अनेकांतवाद स्याद्वाद का और स्याद्वाद
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