Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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अनेकान्तवाद की उपयोगिता
अनेकांतवाद का पर्यायवाची शब्द कहा जाता है, फिर भी दोनों में यह अन्तर हैस्याद्वाद भाषा - दोष का परिमार्जन करता है कि ऐसी भाषा का प्रयोग किया जाए, जो अपने कथन की प्रामाणिकता को प्रदर्शित करते हुए भी पदार्थ के स्वरूप को सुरक्षित रखे । १३३
सारांश यह है कि जैन दर्शन में अनेकांतवाद और स्याद्वाद में आधार - आधेय का संबंध है। अनेकांतवाद स्याद्वाद का आधार है और स्याद्वाद, अनेकांतवाद की भाषायी अभिव्यक्ति की एक शैली है, अतः वे एक दूसरे से संबंधित हैं। यदि इस संबंध कोन स्वीकार किया जाए, तो अनेकांतवाद की भाषायी अभिव्यक्ति किसके माध्यम से होगी ? स्याद्वाद किस सिद्धांत को अभिव्यक्त करेगा और किस पर आधारित होगा ? वस्तुत: उनके इस संबंध के अभाव में स्याद्वाद और अनेकांतवाद दोनों अपूर्ण रह जायेंगे। दोनों सिद्धांतों में पूर्णता इस संबंध को लेकर ही आती है। इस प्रकार स्याद्वाद को न मानने पर अनेकान्तवाद और अनेकांतवाद को न मानने पर स्याद्वाद अपूर्ण रह जाता है क्योंकि स्याद्वादरूपी भवन अनेकान्त रूपी नींव पर खड़ा है। अतः यह कहा जा सकता है कि अनेकान्तवाद और स्याद्वाद का गहरा और अटूट संबंध है। "३" आधुनिक विज्ञान में सापेक्षतावाद
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जैन दर्शन में स्याद्वाद (सापेक्षतावाद) का सिद्धांत समूचे दर्शन का मेरुदंड है। आधुनिक विज्ञान ने भी स्वीकार किया है कि किसी वस्तु के सभी गुण संपूर्णता में नहीं जाने जा सकते। कुछ न कुछ ऐसी बात उसमें रह ही जाती है जो हम नहीं जान सकते। इसलिए पूर्णव्यापी ज्ञान पर विश्वास कर सर्वव्यापी सत्य की सतह पर हम बहुत देर तक टिके नहीं रह सकते हैं। इधर कुछ ही दिनों पहले अमेरिका में New realists ने भी एकांतवाद का तीव्र विरोध किया है। जैन विद्वानों ने भी " एकांतवाद की उपेक्षा कर अनेकांतवाद" का समर्थन किया है, जिसे हम स्याद्वाद के नाम से पुकारते हैं। अत: जैन विद्वानों की इस सूझ का ऋण पाश्चात्य दर्शन पर पड़ा हुआ है। सुकरात को अपने ज्ञान की अपूर्णता का उसकी अल्पता का पूरा भान था । इस मर्यादा को ही उसने ज्ञान अथवा बुद्धिमता कहा है। वह कहता था कि मैं ज्ञानी हूँ, क्योंकि मैं जानता हूँ कि मैं अज्ञ हूँ। दूसरे ज्ञानी नहीं है, क्योंकि वे यह नहीं जानते हैं कि वे अज्ञ हैं।
प्लेटो ने इस स्याद्वाद अथवा सापेक्षतावाद का निरूपण विस्तार से किया । उसने कहा कि हमलोग महासागर के किनारे खेलने वाले उन बच्चों के समान हैं जो अपनी सीपियों से सागर के पूरे पानी को नापना चाहते हैं। वह उस अर्णव के पानी का ही एक अंश है, इसमें कोई संशय नहीं । उसने और भी कहा है कि भौतिक पदार्थ
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