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अनेकान्तवाद की उपयोगिता
सप्तभंग दृष्टि का उदय होता है। इस सप्तभंगी न्याय की परिभाषा करते लिखते हैं।
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"प्रश्नावशात् एकत्र वस्तुनि अविरोधेन विधि प्रतिषेध कल्पना सप्तभंगी” (राजवार्तिक १/६)
अर्थात् प्रश्नवश वस्तु में अविरोध रूप से विधि-निषेध अर्थात् अस्तिनास्ति की कल्पना सप्तभंगी कही जाती है । "
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४. एकान्तता का निषेध करना ।
1. प्रकथन को निश्चयात्मक बनाना ।
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आचार्य विद्यानंदि अपनी अष्टसहस्त्री टीका में लिखते हैं कि सप्त प्रकार की ही जिज्ञासा उत्पन्न होती है, क्योंकि सप्त प्रकार संशय उत्पन्न होता है। इसका भी कारण यह है कि उसका विषयरूप वस्तु धर्म सप्त प्रकार है । सप्तविध जिज्ञासा के कारण सप्त प्रकार के प्रश्न होते हैं। अनंत धर्मों के सद्भाव होते हुए भी प्रत्येक धर्म में विधि-निषेध की अपेक्षा अनंत सप्तभंगियां अनंत धर्मों की अपेक्षा माननी होंगी। " २ जैन दर्शन के अनुसार वही कथन सत्य होता है जो सापेक्ष हो। उस सापेक्षता
का सूचन 'स्यात्' पद करता है। इसीलिए जैन दर्शन प्रत्येक कथन ( जैसे सप्तभंगी में) के पूर्व " स्यात् ” पद जोड़ता है। यह " स्यात् " शब्द न तो मात्र वस्तु की अनेकांतात्मकता को सूचित करता है और न तो मात्र कथन हेतु अपेक्षित धर्म को ही । अपितु वह वस्तु की अनेकांतात्मकता के साथ ही विवक्षित धर्म का सूचन करते हुए कथन को सापेक्ष एवं निश्चयात्मक बनाता है । इस प्रकार 'स्यात्' शब्द के निम्नलिखित कार्य होते हैं १. वस्तु की अनन्तधर्मता को सूचित करना । २. वस्तु में आपेक्षित धर्म का निर्देशन करना । ३. प्रकथन को सापेक्ष एवं सीमित करना ।
हुए जैनाचार्य
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'स्यात्' शब्द के इन कार्यों का निर्देश डॉ० सागरमल जैन ने भी किया है। उन्होंने कहा है कि यदि हम स्यात् कथन को अनेकान्तता का सूचक भी मानें तो यहाँ कथन की अनेकान्तता से हमारा तात्पर्य मात्र इतना ही होगा कि "वह (स्यात्) वस्तु तत्त्व (उदेश्य पद) की अनंतधर्मात्मकता को दृष्टि में रखकर उसके अनुक्त एवं अव्यक्त धर्मों का निषेध नहीं करते हुए निश्चयात्मक ढंग से किसी एक विधेय का सापेक्षिक रूप में विधान या निषेध है।" इस प्रकार 'स्यात्' शब्द की योजना के तीन कार्य हैं (क) कथन या तर्कवाक्य के उद्देश्य पद की अनंतधर्मात्मकता को
सूचित करना ।
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