Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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अनेकान्त: स्वरूप और विश्लेषण
जो अर्थ को शब्दारूढ और शब्द को अर्थारूढ कहता है वह समभिरूढनय है। "नानार्थसमभिराहेणात् समभिरूढः अर्थात् अनेक अर्थों को छोड़कर किसी एक अर्थ में मुख्यता से रूढ़ होने को समभिरूढ नय कहते हैं, जैसे 'गौ' शब्द के ग्यारह अर्थ होते हैं उनमें से केवल 'गाय' यह अर्थ रूढ़ हो गया । यह अर्थारूढ समभिरूढ नय है । इन्द्र, पुरन्दर और शक्र ये तीनों शब्द एक ही 'इन्द्र' के वाचक हैं। परन्तु तीनों ही भिन्न-भिन्न धर्मों को कहते हैं । 'इन्द्र' आनन्द करता है, 'पुरन्दर' नगरों को उजाड़ता है और 'शक्र' शक्तिशाली है।
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समभिरूढ़ का अध्यवसाय शब्दनय से सूक्ष्म है । यह नय इस सिद्धान्त की स्थापना करता है कि वाच्य अर्थ की भिन्नता लिए हुए बिना रोचक - शब्द की भिन्नता नहीं हो सकती है। ऐसे कोई दो शब्द नहीं हैं, जो एक ही वाच्य अर्थ के लिए प्रयुक्त किये जा सकें। दो शब्दों की शक्ति समान नहीं होती है।
(क) अर्थ भेद से शब्द प्रयोग
एक शब्द जिस अर्थ के लिए रूढ़ कर दिया गया हो, या प्रयोग किया जाने लगा हो वह शब्द प्रत्येक अवस्था में उस अर्थ का वाचक होता है । यथा- सिद्धालय, जिनालय, घट |
(ख) शब्द भेद से अर्थ -
जिसमें अर्थ का ज्ञान कराने के लिए शब्दों का प्रयोग किया जाता है। इस अवस्था में एक अर्थ का एक शब्द से ज्ञान हो जाता है। यदि शब्दों में भेद है तो अर्थ भेद भी होगा। जैसे- नर, मनुष्य, पुरुष । इन्द्र, शक्र, पुरन्दर, । नीरज, कमल, अरविंद, सरोज नाथ, स्वामी, प्रभु ।
(ग) वस्तु का अपना स्वभाव
जहाँ अन्य वस्तु की अन्य वस्तु में प्रवृत्ति न हो । यदि अन्य की अन्य में प्रवृत्ति होने लगे तो विरोध आ जाएगा। जैसे
(i) मैं, आप कहाँ रहते हैं ? अपने में ।
(ii) जीव क्या है ? आत्मा है, या ज्ञान है । (iii) अजीव क्या है? अचेतन है ।
(घ) एकार्थवाची अनेक शब्द एक के लिए
जो शब्द परस्पर प्रसिद्ध हैं, उन शब्दों में भेद होते हुए भी अर्थभेद नहीं होता है, जैसे वीर, अतिवीर, सन्मति, महावीर शब्द परस्पर में प्रसिद्ध हैं - अन्तिम तीर्थंकर
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