Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
View full book text
________________
Multi-dimensional Application of Anekantavāda
पर्याय की दृष्टि से किया जाता है। वस्तु में एक से अनेक गुण हीनाधिक कारणों से ही किए जाते हैं। वर्तमान में जो पर्यायें विद्यमान हैं, वे कथंचित् सत् और कथंचित् असत् भी हैं। इस प्रकार समन्वयकारी वचन तर्कसंगत ही होता है।
268
वस्तु के (i) भेदाभेद (ii) अस्तित्त्व-नास्तित्व (iii) सत्-असत् (iv) मूर्तअमूर्त (v) नित्यानित्य (vi) सामान्य विशेष आदि का विवेचन अनेकान्तवाद की पद्धति पर टिका हुआ है।
अनेकान्तवाद में विरोधी धर्म रहने पर भी वस्तु में कोई विरोध नहीं होता है ।, क्योंकि अनेक धर्मात्मक वस्तु स्थूल भी है, सूक्ष्म भी है, शून्य भी है, परिपूर्ण भी है, उत्पाद-व्यय रूप भी है और नित्य भी है, सद्भाव रूप भी है और असद्भाव रूप, भी ऐसी व्यवस्था में कहीं विरोध नहीं आता है, विरोध तो परस्पर विपरीत कारणों से ही उत्पन्न होता है, एक पक्ष पर ही टिके रहने से होता है।
अनेकान्त के सप्त निर्देश
वस्तु अनेकधर्मात्मक है। वस्तु स्वरूप की अभिव्यक्ति ज्ञाता पर निर्भर करती है। वस्तु के निर्देश को वक्ता कहाँ तक किस रूप में व्यक्त कर सकता है । इसके लिए प्रमाण के आधार पर एक रूप में, नय की अपेक्षा से दो से सात तक विकल्प हो सकते हैं। आगमों में जो कुछ भी प्रतिपादित किया गया है, वह वस्तु के भंग पर ही किया गया है। तत्त्व निरूपण हो या अन्य कोई भी विचार वह विकल्पों के प्रयोग पर ही आधारित रहा है, क्योंकि एकांगी दृष्टि से तत्त्वनिरूपण नहीं किया जा सकता है- भगवतीसूत्र (२६/१/ ९७९) में भंग का विवेचन इस प्रकार प्राप्त होता है
सम्मदिट्टीणं चत्तारि भंगा। मिच्छादिट्ठीणं पढम - वितिया । सम्मामिच्छादिट्ठीणं एवं चेव । नाणीणं चत्तारि भंगा | अण्णाणीणं पढम-वितिया । लोभकसायिस्स चत्तारि भंगा | जोगिस
चभंगो । इत्यादि ।
१. जीव स्वतः नित्य है, २. जीव स्वतः अनित्य है, ३. परत: नित्य है, ४. जीव परत: अनित्य है,
१. आत्मा है, आत्मा नहीं है, २. आत्मा है, अवक्तव्य है, ३. आत्मा नहीं है, अवक्तव्य है, ४. आत्मा है, आत्मा नहीं है, अवक्तव्य है।
अत्थि, णत्थि, और अवक्तव्य की दृष्टि से तीन नय हैं। आगमों में यही पद्धति
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org