Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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Multi-dimensional Application of Anekäntavāda
णामं ठवणा दविए त्ति एस दव्वट्ठियस्स णिक्खेवो । भावो उ पज्जवट्ठिअस्स परूवणा एस परमत्थो१०।।
नाम, स्थापना और द्रव्य इन तीन निक्षेपों को द्रव्यार्थिक और भाव निक्षेप को पर्यायार्थिक मानते हुए इसे परमार्थ माना है। - उपर्युक्त निक्षेप अनेकान्त की पहचान के प्रतीक हैं, क्योंकि निक्षेप में भी लोकव्यवहार का समावेश है और अनेकान्त लोक व्यवहार पर ही विकास को प्राप्त होता है। इसकी वचनविधि सापेक्ष है। स्यादवाद की सार्वभौमिकता
भारतीय दर्शन की विचारधारा समय-समय पर अनेक तत्त्व चिन्तकों, ऋषियों, मुनियों, तपस्वियों एवं दार्शनिक समीक्षकों के द्वारा प्रस्फुटित होती रही है। विविध सिद्धान्तों में से कौन समीचीन है और कौन नहीं यह हमेशा ही विवेचन का विषय रहा है। सत्य की सार्वभौमिकता को न कोई ऋषि जान सका और और न सही रूप में हमारे सामने रख सका। जो कुछ भी विस्तार हमारे सामने है, जो कुछ भी चिन्तन का विषय है, उस पर विचार करते हुए यह तो मानना ही पड़ेगा कि ऋषि, मुनियों की अपरोक्ष विचारधारा समग्रता पर ही आधारित है, उसमें विरोध की संभावना नहीं।
दर्शन की विचारधारा में विश्व की जटिल से जटिल समस्याओं, उनकी व्यवस्थाओं एवं उनके समाधान से सम्बन्धित अनेको तथ्य हैं, जिन्हें खोजकर, जिनका अनुसन्धान कर, जिनका अनुशीलन कर समाज की जीवन्तधारा को नई दिशा प्रदान की जा सकती है।
चाहे जड़ हो या चेतन वे सभी अनेक शक्तियों, अनेक धर्मों के वस्तु स्वरूप को लिए हुए हैं। उन अनन्त शक्तियों के सहयोगी और परस्पर विरोधी भी हैं। एक ही अण में जहाँ आकर्षण शक्ति है, वहाँ उसमें विकर्षण शक्ति भी विद्यमान है। जहाँ उसमें विनाशकारी शक्ति विद्यमान हैं, वहाँ निर्माणकारी शक्ति भी विद्यमान है। एक ही औषधि किसी के रोग के उपचार में सहायक होती है तो किसी के रोग में अहितकारी भी। इससे यह बात तो स्पष्ट है कि कोई भी चिन्तन सत्य से हटकर नहीं हो सकता है, फिर भी विरोध, संघर्ष, विलगाव, विनाश आखिर क्यों।
दार्शनिक जटिल से जटिल विषय के द्रष्टा होते हैं, विभिन्न दृष्टिकोणों से देखते हैं और अपने चिन्तन द्वारा उस समस्या का समाधान करते हैं, उसमें पक्ष कोई भी हो सकता है, उसका मत कोई भी हो सकता है, उसका विवेचन कुछ भी हो सकता है परंतु वह जो भी चिन्तन प्रस्तुत करेगा वह सर्वमान्य, तर्कसंगत, प्रामाणिक और विभिन्न द्रष्टाओं द्वारा किये गए प्रत्यक्ष अनुभव पर आधारित होगा। विरोध द्रष्टा की दृष्टि में है या द्रष्टा के द्वारा
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