Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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अनेकान्तः स्वरूप और विश्लेषण
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आत्माश्रितो निश्चयनय
निश्चयनय आत्मा के /निज के आश्रित है। जैसे समुद्र की तरंगों के उत्पन्न होने में हवा निमित्तकारण है, फिर भी निश्चयनय से समुद्र ही तरंगों को उत्पन्न करता है। वैसे ही आत्मा केवल अपने भावों का कर्ता है
वेदयदि पणो तं चेव जाण अत्ता दु अत्ताणं६२।" आत्मा अपने आपका कर्ता है और अपने आपका भोक्ता है, दूसरे का नहीं ।
जं कुणदि भावमादा कत्ता सो होदि तस्स भावस्स । ___णाणिस्स दु णाणमओ, अण्णाणमओ अणाणिस्स ॥(समयसार १३४)
जो भाव आत्मा कर्ता है, वही उसका भाव होता है, ज्ञानी का ज्ञानमय और अज्ञानी का अज्ञानमय। निश्चयनय-भेद विवक्षा
(१) शुद्धनय (२) अशुद्धनय, (३) सम्यक् नय और (४) मिथ्यानय या (१) शुद्ध निश्चयनय और (२) अशुद्ध निश्चयनय । १. सुद्धो-सुद्धादेसो (शुद्ध निश्चयनय)
शुद्ध निश्चयनय शुद्ध द्रव्य कथन करने वाला होता है, वह शुद्धता को प्राप्त होने के कारण' शुद्धात्म-भावदर्शिर्भि:" शुद्धात्मा के दर्शी पुरुषों के द्वारा अनुभव करने योग्य है। यह अभेद रत्नत्रय स्वरूप है। जो आर्त, रौद्र का त्याग कर देता तथा जो निर्विकल्प समाधि में स्थित हो जाता है, वह शुद्धात्मा के स्वरूप का, शुद्धादेश का दर्शन करता है, अवलोकन करता है, अनुभव करता है, उपलब्धि करता है, प्रतीति करता है, प्रसिद्धि प्राप्त करता है और अनुभूति को भी प्राप्त होता है, वही- गुण-गुणी के अभेद रूप निश्चय नय से शुद्धात्म स्वरूप को प्राप्त होता है। (क) परमस्वभावग्राही
सुद्धो जीव सहावो जो रहिओ दव्वभाव-कम्मेहिं । सो सुद्ध-णिच्छयादो समासिओ सुद्धणाणीहिं६३ ।।
शुद्ध निश्चय नय से जीव स्वभाव द्रव्य और भाव कर्मों से रहित है, परम स्वभाव को ग्रहण करने वाला है। (ख) भेदाभेदरत्नत्रय की मुख्यता -
शुद्ध निश्चय नय में शुभ-अशुभ विकल्प नहीं होते हैं। दर्शन, ज्ञान और चारित्र ये तीन भिन्न-भिन्न स्वरूप वाले अवश्य हैं, किन्तु निश्चय नय से ये तीनों आत्म स्वरूप हो जाते हैं।
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