Book Title: Multidimensional Application of Anekantavada
Author(s): Sagarmal Jain, Shreeprakash Pandey, Bhagchandra Jain Bhaskar
Publisher: Parshwanath Vidyapith
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अनेकान्तः स्वरूप और विश्लेषण
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व्यवहार को प्राप्त है। यदि उनमें से सबसे पहले विश्व की व्यापकता को ही जान लिया गया तो वह एक सूत्र ‘अनेके अंता धर्माः' के रूप में परिवर्तित हो जाएगा।
___सामान्य रूप से किसी वस्तु के एक गुण का ज्ञान होने से उस वस्तु के अस्तित्व का ज्ञान समझ लिया जाता है, जैसे- पपीते को देखकर हमने कहा कि हमने पपीता जाना। परन्तु यह कथन औपचारिक है, एक अंश रूप है, एकान्तिक है। यदि पपीते के रूप, रस, गन्ध, स्पर्श, मूर्तत्व, लघुत्व, प्रमेयत्व आदि उसमें स्थित अनेक धर्म का अनुभव नहीं किया गया तो उस पपीते को जानने मात्र से उसे उसकी पूर्णता में जान लिया गया, नहीं कहा जा सकता। वस्तु के एकांश को जानने का साधन नय तथा उसकी सम्पूर्णता में जानने का साधन प्रमाण है।
प्रमाण
प्रमाण एक निर्णायक पक्ष है। बौद्धों ने ज्ञान को प्रमाण कहकर तर्क प्रस्तुत किया। नैयायिकों ने ज्ञान की सहायक सामग्री को प्रमाण बतलाया, पर अनेकान्त सभी की सुनने के बाद अपने निर्णय में तर्क देता है कि मात्र ज्ञान को प्रमाण, ज्ञान की सामग्री को प्रमाण नहीं माना जा सकता है। "अर्थोपलब्धिहेतुः प्रमाणम् ।" प्रमाण में अर्थ की उपलब्धि रहती है। इसलिए सिद्धसेन को कहना पड़ा
प्रमाणं स्वपराभासि ज्ञानं वाधविवर्जितम् ।।
प्रमाण स्व और पर का प्रकाशक है और संशय-विपर्यय आदि बाधाओं से रहित है। प्रमाण का प्रस्तुतीकरण विविध रूपों में हुआ। प्रमाण का सामान्य स्वरूप
"गेण्हदि वत्थुसहावं अविरुद्धं सम्मरूवगं णाणं ।
भणियं खु तं पमाणं ।।
जिससे संशयादि रहित सम्यक् रूप से वस्तु स्वभाव का ज्ञान होता है या वस्तु स्वरूप का ग्रहण होता है, वह प्रमाण कहा जाता है। धवलादि ग्रन्थों में भी ज्ञान को प्रमाण माना है।
__ “णाणं होदि पमाणं। १० ज्ञान प्रमाण है। यह सूत्र भी ज्ञान को प्रमाण मानता है। 'ज्ञानं प्रमाणमित्याहः।११ अष्टशतीकार ने अपनी प्रमाण की परिभाषा देते हुए कहा है कि "अर्थस्यानेकरूपस्य धी: प्रमाणं।' जिससे अर्थ के अनेक रूपों की प्रतीति हो, वह ज्ञान प्रमाण है। इसी को आगे अर्थतत्त्व की प्रतीति के लिए उन्होंने कहा -
"तदनेकान्तप्रतिपत्ति: प्रमाणं ।'
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