Book Title: Kuvalaymala Kaha Ka Sanskritik Adhyayan
Author(s): Prem Suman Jain
Publisher: Prakrit Jain Shastra evam Ahimsa Shodh Samsthan
View full book text
________________
परिच्छेद तीन
ग्रन्थ की कथावस्तु एवं उसकी सांस्कृतिक पृष्ठभूमि
कुवलयमाला कहा में वर्णित सामग्री अपने आप में इतनी महत्त्वपूर्ण है कि . उसके अध्ययन अनुसन्धान मात्र से ही ग्रन्थ की उपयोगिता एवं ग्रन्थकार की महानता स्थापित हो जाती है । प्राचीन भारत के व्यापार वाणिज्य एवं भाषाशास्त्र के क्षेत्र में जब कुवलयमालाकहा की उपलब्धियों को जोड़ा जाता है, तो लगता है, उद्योतनसूरि का परिश्रम पर्याप्त मात्रा में सफल रहा है । किन्तु इस वाह्य उपयोगिता से परे अन्तरंग दृष्टि से विमुख नहीं हुआ जा सकता । कुवलयमाला का कथानक केवल मनोरंजक कथाएँ नहीं सुनाता, बल्कि हमें उस बिन्दु तक — मानव जीवन के चरम लक्ष्य की प्राप्ति तक भी ले जाता है, जहाँ पहुँचने के लिए इन कथाओं का संयोजन हुआ है ।
1
उद्योतनसूरि ने कुवलयमाला के कथानक को यों ही गढ़कर तैयार नहीं किया है । इसकी पृष्ठभूमि में उनके अहिंसामय एवं तपः पूर्ण जीवन का भी पूर्ण प्रभाव रहा है । मानव की मूल प्रवृत्तियों में परिवर्तन लाना कोई सहज कार्य नहीं है, किन्तु उद्योतन ने इस चुनौती को स्वीकारा है । भारतीय संस्कृति के गौरव के प्रति निष्ठावान् होकर कथाओं के माध्यम से उन्होंने यह चाहा है कि यदि छोटे से छोटा भी व्यक्ति अपनी प्रसद्वृत्तियों के परिशोधन में प्रवृत्त हो जाय तो एक न एक दिन वह केवल सद्वृत्तियों का ही स्वामी बन कर रहेगा। भले इसके लिए उसे जन्म-जन्मान्तरों की यात्रा तय करनी पड़े । ग्रन्थकार की इस सांस्कृतिक पृष्ठभूमि को और अधिक स्पष्ट करने के लिए आवश्यक है कि पहले कथानक को संक्षेप में एक बार हृदयंगम कर लिया जाय । सम्पूर्ण कथानक इस प्रकार हैं
कथावस्तु
जम्बूद्वीप के भारत देश में, वैताढ्य पर्वत की दक्षिण-श्रेणी में गंगा और सिन्धु के बीच मध्य देश था, जिसकी राजधानी विनीता अयोध्या नगरी थी । वहाँ दृढ़वर्मन् राज्य करते थे । उनकी पटरानी का नाम प्रियंगुश्यामा था ।
एक दिन राजा अभ्यन्तर प्रस्थान - मण्डप में रानी एवं कुछ प्रधान मन्त्रियों के साथ बैठा हुआ था, सुषेण नामक शबर सेनापति वहाँ प्रविष्ट हुआ । राजा को प्रणाम कर उसने मालवा के राजा के साथ किस प्रकार युद्ध हुआ,