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कुरल काव्य
परिच्छेदः ४ धर्म-महिमा
धर्म भिन्न फिर कौन है, कही सुधी कल्याण जिससे मिलता स्वर्ग है, तथा कठिन निर्वाण ।।१।।
धर्म तुल्य इस लोक में, अन्य न कुछ भी श्रेय । और न उसके त्याग सुम्, अन्य अधिक अश्रेय || २ ||
सत्कर्मों को विज्ञजन, कहते सुख की खान । यथाशक्ति उत्साह से, करो सतत धीमान् 11३11
अपने मन की शुद्धि ही, धर्मों का सब सार । शब्दाडम्बर मात्र हैं, वृथा अन्य व्यापार || ४ ||
क्रोध लोभ के साथ में, त्यागी ईर्ष्या, मान । मिष्टवचन - भाषी बनो, यही धर्म-सोपान ||
आज काल को छोड़कर, अब ही कर तू धर्म मृत्यु समय भी साथ दे, परममित्र यह धर्म || ६५
धर्म किये क्या लाभ है, यह मत पूछी बात । देखो नृप की पालकी, वाहक- गण ले जात ॥७।।
धर्मशून्य जाता नहीं, जिसका दिन भी एक । बन्द किया भवद्वार ही उसने हो सविवेक ॥८॥
धर्मजन्य सुख को कहें, सच्चा सुख धीमान् । और विषय सुख को कहें, लज्जा दुःखनिदान ||६||
जिसका साथी धर्म है, करो सदा वह काम | जिसके साथ अधर्म है, छोड़ो उसका नाम ||१०|
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