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कुकूरल काव्य
परिच्छेदः ६५ वाक्पटुता
१. वाक्शक्ति निःसन्देह एक बड़ा वरदान है, क्योंकि वह अभ्य वरदानों का अंश नहीं किन्तु एक स्वतन्त्र वरदान है।
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- जीवन और मृत्यु जिव्हा के वश में है, इसलिए ध्यान रक्खो कि तुम्हारे मुँह से कोई अनुचित बात न निकले ।
3- जो बक्तृता मित्रों को और भी घनिष्टता के सूत्र में आबद्ध करती है और विरोधियों को भी अपनी ओर आकर्षित करती है, बस वही यथार्थ वक्तृता है ।
4- हर एक बात को ठीक तरह से तौल कर देखो और फिर जो उचित हो वही बोली, धनवृद्धि तथा लाभ की दृष्टि से इससे बढ़कर उपयोगी बात तुम्हारे पक्ष में और कोई नहीं है ।
5- तुम ऐसी वक्तृता दो कि जिसे दूसरी कोई वक्तृता चुप न कर सके।
6- ऐसी वक्तृता देना कि जो श्रोताओं के हृदय को खींचले और दूसरों की वक्तृता के अर्थ को शीघ्र ही समझ जाना यह पक्के राजनीतिज्ञ का कर्तव्य है ।
7- जो आदमी सुवक्ता है और जो गड़बड़ाना या डरना नहीं जानता, विवाद में उसको हरा देना किसी के लिए संभव नहीं ।
8- जिसकी वक्तृता परिमार्जित और विश्वासोत्पादक भाषा से सुसज्जित होती है सारी पृथ्वी उसके संकेत पर नाचेगी।
9- जो लोग अपने मन की बात थोड़े से चुने हुए शब्दों में कहना नहीं जानते वास्तव में उन्हीं को अधिक बोलने की आदत होती है I 10- जो लोग अपने प्राप्त किये हुए ज्ञान को समझा कर दूसरों को नहीं बता सकते वे उस फूल के समान हैं जो खिलता है परन्तु सुगन्ध नही देता ।
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