Book Title: Kural Kavya
Author(s): G R Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 301
________________ ज, कुबल काव्य पर मध का त्याग प्रेमी यदि हो मद्य के, फिर क्यों अरि हो भीत । और उसी से पूर्व के, मिटते गौरव-गीत ।।१।। यदि हो हित की कामना, करो न मदिरापान । माने नहीं अनार्य तो, पीए तज वर मान ।। २१॥ मदिरापायी की दशा, माता ही जब देख ।। ग्लानि करे तब भद्र का, क्या करना उल्लेख ।।३।। नर को देख कुसंग में, मधु लेवे जब घेर । लज्जा सी तब सुन्दरी,जाती मुख को फेर ।।४।। कैसी यह है मूर्खता, कैसा प्रतिभा द्रोह । मूल्य चुकाकर आप ले, विस्मृति, विभ्रम मोह ।।५।। किसी तरह के मद्य का, पीना विष का पान । सोता ऐसी नींद वह,ज्यों होता मृत भान ।।६।। छिप कर भी घर में पियी, करती मदिरा हानि । भेद पड़ौसी जानकर, करते अति ही ग्लानि ।।७।। 'नहीं जानता मद्य में', मतकर यों अपलाप । कारण झूठ कुटेव में, और बढ़ावे पाप ।।८।। व्यसनी को उपदेश दे, खोना ही है काल । डूबे नरी की खोज में, जल में व्यर्थ मसाल ।।६।। स्वयं शराबी होश में, देखे मद के दोष । पर सोचे निज के नहीं, यह ही दुःखद रोष ।।१०।। 294)

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