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f, कुभल काव्य र
परिच्छेदः १०४
खेती रहे मनुज मू में कहीं, उसे अपेक्षित अन्न । वह मिलता कृषि से अतः, कृषि रखिए आसत्र ।।१।।
देशरूप रथ के धुरा, कृषकवर्ग ही ख्यात । - कारण पलते अन्य सब, उनसे ही दिन-रात ।।।। उनका जीवन सत्य जो, करते कृषि उद्योग । और कमाई अन्य की, खाते बाकी लोग ।।३।।
सोते साखा छाँह में, खेत जहाँ सर्वत्र ।
उस जनपद के छत्र को, झुकते सब ही छ्त्र ।।४।। कृषि जीवी के भाग्य पर, लिखा न भिक्षावेथ । यह ही क्यों वह दान भी, देता बिना निषेध ॥५॥
निजकर को यदि खींचले, कृषि से कृषक समाज ।
___ गृहत्यागी तब साधु तक, टूटे शिर पर गाज ।।६।। आर्द्रभूमि के धूप में, शुष्क करो बहु अंश । खाद बिना उपजाऊ हो, बच कर चौधा अंश ।।७।।
__जोतो नीदो खेत को, खाद बड़ा पर तत्व ।
सींचे से रक्षा उचित, रखती अधिक महत्व ।।८।। नहीं देखता भालता, कृषि को रह कर गेह । गृहिणी सम तब रूठती, कृषि भी कृश कर देह ।।६।।
खाने को कुछ भी नहीं, यो जो करे विलाप । हँसती उस मतिमन्द पर, धरिणी-लक्ष्मी आप ।।१०।।
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