Book Title: Kural Kavya
Author(s): G R Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 325
________________ - कुभल काव्य शुर-- परिच्छेदः १०५ दरिद्रता निर्धनता से अन्य क्या, बढ़कर दुःखद वस्तु । तो सुनलो दारिद्र ही, सबसे दुःखद वस्तु ।। ११ इसभव के सब हर्ष ज्यों, हरता शठ दारिद्र । पर भव के भी भोग त्यों, हनता है दारिद्र ।।२।। तृष्णाभरी दरिद्रता, सचमुच बड़ी बलाय । वाणी कुल की उच्चता, हनती क्षण में हाय ।।३।। हीनदशा नर को अहो, देती कष्ट महान 1 बोले वंशज हीन सम, तजकर कुल की आन ।।४।। सचमुच है दारिद्र भी, विधि का ही अभिशाप । छिपे हजारों हैं जहाँ, विपदामय सन्ताप ।।५।। निर्धन जनके श्रेष्ठ भी, गुण हैं कीर्तिविहीन । प्रवचन भी रुचता नहीं, उसका गुण से भीन ।।६।। पहिले ही धनहीन हो, साथ धर्म की हानि ।। उसकी जननी ही उसे, करती मन से म्लानि ।।७।। क्या मुझ से दारिद्र तू, आज न होगा दूर । अर्थमृतक सम था किया, कल ही तो हे क्रूर ।।८।। तपे हुए भी शूल हों, उनपर सम्भव नींद ।। निर्धन को सम्भव नहीं, आनी सुख की नींद ।।६।। नहीं रंकता नाश को, रंक करें उद्योग । अन्नादिक पर द्रव्य की, तो हत्या का योग ।।१०।। 318

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