Book Title: Kural Kavya
Author(s): G R Jain
Publisher: Vitrag Vani Trust Registered Tikamgadh MP

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Page 329
________________ कुरल काव्य परिच्छेदः १०० भीख माँगने से भय भिक्षुक और अभिक्षु में, कोटि गुणा का फेर । हो वदान्य दाता भले, धन में पूर्ण कुवेर ||१|| नर होकर भिक्षा करे, ऐसा जिसको इष्ट । सृष्टि-विधाता वह मरे, भव में अमें अनिष्ट ||२|| निर्लज्जों में सत्य वह, सर्वाधिक निर्लज्ज । जो कहता मैं भीख से, करदूँ श्री को सज्ज ||३|| अतिनिर्धन होकर नहीं, याचे पर से द्रव्य । निज गौरव से धन्य वह, भू भी उसे अद्रव्य ||४|| निज कर के श्रम से मिले, भोजन बिना विषाद । पतला भी यह नीर सम, देता अति ही स्वाद ||५|| एक शब्द से याचना, है निन्दार्थ समर्थ । माँगों चाहे नीर भी, गौ के ही तुम अर्थ ||६|| भिक्षुकगण से एक मैं, माँगू भिक्षा प्रात । मत माँगो उनसे कभी, हीला जिनकी बात ॥७॥ दाता का हीला लगे, भिक्षुक का विषघूँट । मानो वाणीपोत ही, गया शिला से टूट ||८|| भिक्षुक - जन के भाग्य को, सोच कँपे यह जीव । और अवज्ञा देख फिर, मरता तात अतीव ॥६॥ कहाँ निषेधक के छिपे, क्या जाने ये प्राण मिलते ही धिक्कार पर निकलें याचक प्राण ।।१०।। 322

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